Thursday, 31 October 2019

सोच ज़माने की

लच्छेदार बातों के सुंदर खोल में बसा
आधुनिक युग की बेटियों का संसार
मुट्ठीभर प्रगतिशील बेटियों से हटाकर आँखें
कल्पनाओं के तिलिस्म के बाहर
अक़्सर जब यथार्थ की परतों में झाँकती हूँ
तो पूछती हूँ यह प्रश्न स्वयं से
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?

आज भी तो नवजात बिटिया के 
जन्म पर,भविष्य के भार से 
काँपते कंधों को संयत करते
कृत्रिम मुस्कान से सजे अधरों और
सिलवट भरे माथे का विरोधाभास लिये
"आजकल बेटियाँ भी कम कहाँ है"
जैसे शब्दांडबर सांत्वना की थपकी देते
माँ-बाबू पर दया दृष्टि डालते परिजन की
"लक्ष्मी आई है"के घोष में दबी फुसफुसाहटें
खोखली खुशियाँ अक्सर पूछती हैं
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?

देखा है मैंने 
दिन-रात की मनौतियों
देवता -पित्तर से बेटे के
आशीष की गुहार में
अनचाही उगी बेटियाँ
बाप-भाई के दूध-बताशे के कटोरे में
पानी में भीगी 
बासी रोटियाँ खाकर तृप्त
खर-पतवार-सी बढ़ती जाती हैं
पढ़ाई के लिए कॉपी के बचे पन्ने,
बिना कैप वाली आधी रिफिल 
भैय्या का पुराना बैग सहेजती
सुनती है घर के बुज़ुर्गों से
कुछ काम-काज सीख ले...
कलैक्टर बन भी गयी तो 
चूल्हा ही फूँकेंगी सुनकर सोचती हूँ
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?

आज भी तो एक लड़की के
घर से बाहर अकेले क़दम रखते ही
हर आँख तन को भेदती है
उसके कपड़े के मोटाई नापती
मुँह पर लगा क्रीम-पाउडर जाँचती
बालों की बनावट का निरीक्षण 
उसकी मुस्कुराहट और हँसी का रहस्य
उसके हर एक हाव-भाव का 
सूक्ष्म चारित्रिक विश्लेषण 
सयानी होती बेटियों के
इर्द-गिर्द घूमती दुनिया देख 
अनायास ही सोचती हूँ
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?

समाज के आइने में खड़ी
दिन-रात निहारती है
बेटों के रत्नजड़ित 
आदमक़द तस्वीरों के आस-पास 
बस यूँ ही खींची गयी लकीरों में
अपनी छवियों को
आज भी सीता की तरह
चारित्रिक धवलता का प्रमाण देती
द्रौपदी की तरह अपमान सहती
अहिल्या की तरह अभिशप्त होती
शंकुतला की तरह बिसराई गयी
पुरुष के आगे बेबस बेटियों को
अपने अस्तित्व के लिए 
जूझती देखकर सोचती हूँ
बेटियों के लिए सोच ज़माने ने कब बदली?
बेटियों के लिए सोच ज़माने की कभी नहीं बदली...।


#श्वेता सिन्हा
साहित्य कुंज के फरवरी द्वितीय अंक में प्रकाशित।
http://m.sahityakunj.net/entries/view/soch-zamaane-kee


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