Sunday, 9 September 2018

मितवा मेरे


हिय की हुकहुक सुन जा रे 
ओ बेदर्दी मितवा मेरे
जान के यूँ अनजान न बन
ओ निर्मोही मितवा मेरे

माना कि तेरे सपनों की,
सुंदर तस्वीर नहीं हूँ मैं
कैसे हो सकती हूँ मैं भला!
राँझे की हीर नहीं हूँ मैं
जल जाऊँ बाती बनकर
मुझे दीप बना लो पूजा का
न बिसराओ अपने मन से
सुन बात मेरी मितवा मेरे

क्या तुम्हें भला दे सकती मैं?
हूँ रिक्त अंजुरी तृप्ति की
सुर सजा न पाऊँ मधुर,मदिर
गाती हूँ राग विरक्ति की
अर्ध्य बनूँ जीवन-घट का
मैं सींचूँ तेरे मनरथ  को
अधर सजा मुस्कान बना
ना रुठो तुम, मितवा मेरे

है विकल हृदय की चाह मेरी
तुम देख लो दृष्टि भर मुझको
भ्रम हो तो फिर हो क्यूँ धुक-धुक?
बींधे दृग वृष्टि कर मुझको
तुम देह नहीं सुरभित मन हो
जग बंधन को जो माने न
मृग मन का चंचल समझे न 
तू समुझा जा मितवा मेरे

-श्वेता सिन्हा




मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...