सुनो! हे सृष्टि के अदृश्य भगवान
अरजी मेरी,कामना तुच्छ तू मान
अस्तित्वहीन चिरनिद्रा में सो जाऊँ
जागूँ धरा पर बनकर नवल विहान
बर्फ,ठिठुरती निशा प्रहर
कंपकपाते अनजान शहर
धुंध में खोये धरा-गगन के पोर
सूरज की किरणों से बाँधूँ छोर
सर्द सकोरे भरूँ गुनगुनी घाम
मलिन मुखों पे मलूँ नवल विहान
सूखती टहनी,बंजर खेत
भूख से आकुल नन्हे पेट
बनूँ बीज हरियाऊँ धरती कोख
चंचल धारा,बरखा की बूँदें शोख
दुःख के अधरों की मीठी मुस्कान
तृप्ति स्वप्न नयन धरूँ नवल विहान
जाति धर्म के बेतुके झगड़े
राजनीति के प्रपंची रगड़े
हृदय बसूँ मानवता बनकर
प्रेम के पुष्प ईष्या से छनकर
एकसूत्र संस्कृति के गूँथूँ नेह वितान
बंधनहीन धरा पर लाऊँ नवल विहान
बंधनहीन धरा पर लाऊँ नवल विहान
#श्वेता सिन्हा
३/१/२०२०
३/१/२०२०