Thursday, 7 August 2025

प्रकृति सभ्य नहीं



पत्थरों को रगड़कर 
सभ्यता के उजाले में खड़ी हूँ,
चमड़ी से दमड़ी तक की यात्रा में
प्रगतिशीलता की धुँध पी-पीकर
छाती में फफूँद जमा कर रही हूँ,
पहाड़ फोड़कर,वनों को उजाड़कर
तालाब,कुएँ पाटकर
नदियों के रास्तों पर 
व्यापारिक आशियाने साटकर
आँखों में विकास की तिलिस्मी पट्टी लगाए 
अपनी  विलासिताओं के लिए
प्रकृति के वर्जित प्रदेशों में आतातायी बन
प्रकृति के विश्वास का जमकर दोहन किया मैंने,
दीमक के शहर बसाकर चाट रही जीवन को
मैं जानकर भी अनजान बनी रही कि...
धीरे-धीरे सिकुड़ती, सिमटती प्रकृति
अपनी बची-खुची शक्ति समेटने के लिए
जब-जब अगड़ाई लेती है
खोखली हुई धरती 
अपना संतुलन खो देती है।

पशु संरक्षण
पक्षी संरक्षण,
वन,भूमि,अन्न संरक्षण
पारिस्थितिकी संतुलन के लिए
जारी दिशानिर्देशों को
अनदेखा, अनसुना करती 
मैं स्वार्थी बनी 
प्रकृति को साधने का स्वप्न देखती हूँ।

किसी भी  बंधन को मानने से 
इंकार करती प्रकृति 
मेरी मनमानियों पर चेतावनी देती है
उसकी एक ज़रा-सी ठोकर पर
खिलौने की तरह बहते,
असहनीय पीड़ा से चीखते-पुकारते,
तबाही के मंज़र देख
डबडबाए मन से 
आत्ममंथन करती हुई 
सोचती हूँ...
आख़िर कब तक 
प्रकृति
शालीन बनी,सहती रहेगी मेरी यातनाएँ
मुझे भूलना नहीं चाहिए 
प्रकृति सभ्य नहीं; सहनशील है।
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-श्वेता
 ६ अगस्त २०२५
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Friday, 18 July 2025

तुम्हारे जन्मदिन पर--(२)


तुम्हारे जन्म के पहले से 

जब तुम कोख में थी मेरे

तबसे  नन्ही-नन्ही 

अनगिनत रंगीन शीशियाँ

सहेज रही हूँ 

तुम्हारी स्मृतियों के

 इत्र में भीगीं।


 प्रत्येक वर्ष

तुम्हारे जन्मदिन पर

दिनभर की भाग-दौड़ से

थमने के बाद चुपचाप

अंतरिक्ष की स्याह स्लेट पर

तुम्हारे भविष्य की तस्वीर

उकेरती हूँ

नक्षत्रों से बातें करती हूँँ

नम आँखों में तुम्हारे सुखों और

ख़ुशियों की कामना लिए

आँचल फैलाकर

दुआएँ माँगती हूँ।


और अब...

इस उम्र में 

जब देह और मन के अंतर्द्वन्द्व 

समझने का प्रयास करती

तुम्हारे मन की कोमल चिड़िया

अपनी नाज़ुक चोंच से

नभ का सबसे चमकीला तारा

 उठाना चाहती है।

अपने भीतर बसाये

कल्पनाओं की गुलाबी दुनिया में

अपना नाम टाँकना चाहती है।

मैं धैर्य और साहस बनकर

तुम्हारे स्वप्नों का 

एक सिरा थामकर अदृश्य रूप से

तुम्हारे साथ-साथ चलना चाहती हूँ।


सुनो बिटुआ....

तुम इंद्रधनुष के

इकतारे पर अपने जीवन का

संगीत लिखो,

जब भी थक जाओ 

जीवन की जटिलताओं से

मेरे आशीर्वाद को 

ओढ़ कर,

सुस्ता लेना मेरी प्रार्थनाओं के

बिछावन पर...

मैं रहूँ न रहूँ

पर एक मैं ही तो हूँ

निःस्वार्थ, निष्काम

तुम्हारी आत्मा की परछाई,

तुम्हारी स्मृतियों की खिड़की पर

आजीवन हर मौसम में 

खड़ी मिलूँगी

तुम्हारे हृदय में पवित्र

ममत्व का भाव बनकर।

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-श्वेता

१८ जुलाई २०२५

Saturday, 12 July 2025

दर्द ज़रा कहने दो


थोड़ी इंसानियत तो आदमी में रहने दो।
पत्थर नहीं हो  रौ जज़्बात की बहने दो।।

बे-हाल लहूलुहान है वो शहर आजकल,
बे-नाम सड़कों पे दरिया मरहम का बहने दो।

जज़्ब कहाँ हो पाते हैं आँखों के समुंदर,
अश्क में भीगे सपने दहते हैं तो दहने दो ।
  
काग़ज़ के कुछ फूल लगाके खिड़की पे,
बहारों के ग़म ख़ामोशी से सहने दो।

बहुत मायूस है दिल-ए- नादां समझाऊँ कैसे,
आओ न बैठो पहलू में दर्द ज़रा-सा कहने दो।

रोज़ कहती हूँ ज़िंदगी से बे-ज़ार रूह को, 
कुछ दिन और जिस्म के पिंजर में रहने दो।
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✍️श्वेता
१२ जुलाई २०२५

Wednesday, 26 March 2025

बे-मुरव्वत है ज़िंदगी


 बे-आवाज़ ला-इलाज उम्रभर मर्ज़ देती है।
बे-मुरव्वत है ज़िंदगी बे-इंतहा दर्द देती है।


जम जाते हैं अश्क आँख के मुहाने पर;

मोहब्बत की बे-रुख़ी मौसम सर्द देती है।


 ख़्वाब इश्क़ के जब भी देखना चाहो

 दिल को धप्पा, दुनिया कम-ज़र्फ़ देती है।


सीले मन के आहातों में अंधेरा कर;

बे-वफ़ाई मोहब्बत का रंग ज़र्द देती है।


ढूँढ़ते फिर रहे ज़माने भर में मरहम;

ये आशिक़ी है, बस झूठा हमदर्द देती है।


-श्वेता

२६ मार्च२०२५

 

Wednesday, 12 March 2025

बचाना अपने भीतर


सरक रहे हैं

तनों की सुडौल देह से

पातों के उत्तरीय,

टहनियों की नाजुक 

कलाइयों से 

टूटकर बिखर रही हैं 

खनकती हरी चुड़ियाँ।


निर्वस्त्र हुए वृक्षों पर

पक्षियों के रहस्य और

हैं धमनियों के जाल;


टूटे,झरे,निराशा के ठूँठ पर

नन्हीं,कोमल,आशाओं से भरी

पत्ती मुस्कुराती है;

नारंगी भोर कुलाचें भरकर

टहक सांझ में बदल जाती है।


सुनो...

जीवन है पतझड़ और बसंत 

कभी लगे अंत तो कभी अनंत

ऋतुओं के दंश से घबराकर

जड़ न होकर

जड़ बन जाना

हर मौसम से बे-असर रह जाना

पतझड़ में धैर्य रखकर;

वसंत और बरखा को बचाना अपने भीतर

इस संसार को सुंदर,जीवंत और 

नम बनाए रखने के लिए...। 

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-श्वेता
१२ मार्च २०२५

Monday, 3 March 2025

बे-हया का फूल


 हर बरस
फागुन के मौसम में
ढाक के गंधहीन फूलों को 
बदन पर मल-मलकर 
महुआ की गंध से मतायी
मेरी श्वासों की सारंगी 
समझने का प्रयास करती है
जीवन का अर्थ...।

मेरे जन्म पर
न सप्तऋषियों ने कोई बैठक की 
न ग्रहों की चाल ने कोई
विशेष योग बनाया ...
न सूरज मुस्कुराया
न चाँद खिलखिलाया 
न सितारों ने भेजा जादुई संदेश
न मछलियाँ देखकर शरमाई
न नदियों ने किलककर तान सुनाई
न कलियों के अधर चूमकर
तितलियों ने प्यार किया
न ही पंखुडियों को छेड़कर
भँवरों ने आँखों को चार किया ...
न किसी कवि ने  प्रेमगीत लिखा
न किसी शाइर ने मनमीत लिखा
संसार के अपरिचित,सामान्य तट पर
किसी भी परिस्थिति में जीवट-सी
चुल्लूभर पानी में डूबकर 
पुष्पित-पल्लवित होती रही
बे-हया का फूल बनकर
सदा से उदासीन और उपेक्षित 
प्रकृति का अंश होकर भी 
प्रकृति में समाने को व्याकुल,
छटपटाती रही उम्रभर...।
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-श्वेता
३ मार्च २०२५

Wednesday, 1 January 2025

आकांक्षा


नन्हीं-नन्हीं आकांक्षाओं की

गठरी सहेजे, 

आने वाली तिथियों के 

किवाड़ की झिर्रियों के पार

उत्सुकता से झाँकने का प्रयास,

नयी तिथियों की पाँव की रूनझुन 

उछाह और उमंग से भरकर

ताज़ा लाल गुलाब की 

नशीली खुशबू-सी 

मन के परों के अवगुठंन खोल देती है।


उड़ते मन की एक आकांक्षा 

नदियों, पहाड़ों,आकाश,बादल,

आकाशगंगा,नक्षत्रों, ग्रहों,

जंगलों,फूलों, तितलियों

कछुओं और मछलियों समेत

समूची प्रकृति की मौन की भाषा

समझ न पाने से विकल

ओस की बूँदों को छू-छूकर 

विलाप करने लगती है।


मन की कुछ आकांक्षाएँ

अपनी नाज़ुक हथेलियों से

काल के नीरनिधि पर

संसार का सबसे ख़ूबसूरत सेतु

बनाना चाहती है;

मानवता से मनुष्यता की,

जिसकी छाया में छल-प्रपंच,

द्वेष-ईष्या, घृणा-क्रोध,लोभ-मोह,

सृष्टि की समस्त कलुषिता भस्म हो जाए

किंतु;

हवा के पन्नों पर लिए लिखी इबारत 

आँधियों में तिनका-तिनका 

बिखर जाती है।


समय की कैंची

कुशलता से निःशब्द

निरंतर काट रही है

पलों की महीन लच्छियों को

जीवन के दिवस,मास,

बरस पे बरस स्मृतियों में बदल रहे हैं

और अब... 

अधूरी,अनगढ़ थकी

आकांक्षाओं का बोझ 

उतारकर 

आने वाले पलों से बे-ख़बर

मैं एक तितली के स्वप्न में 

पुष्प बनकर अडोल पड़ी रहना चाहती हूँ।

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-श्वेता

१ जनवरी २०२५

Thursday, 29 August 2024

इख़्तियार में कुछ बचा नहीं




नज़्म
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चेहरे पे कितने भी चेहरे लगाइए,
दुनिया जो जानती वो हमसे छुपाइए।

माना; अब आपके दिल में नहीं हैं हम,
शिद्दत से अजनबीयत का रिस्ता निभाइए।

हम ख़ुद ही मुँह फेर लेंगे आहट पे आपकी,
आँखें चुराने की आप न ज़हमत उठाइए ।

जी-हज़ूरी ख़्वाहिशों की करते नहीं अब हम,
जा ही रहे हैं, साथ सारे एहसान ले जाइए।

दर्द है भी या नहीं कोई एहसास न रहा,
बना दिया है बुत, सज्दे में सर तो झुकाइए।

दुआओं के सिवा,इख़्तियार में कुछ बचा नहीं, 
अब शौक से हिज्र की रस्में निभाइए।

#श्वेता

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...