Thursday, 25 February 2021

जोगिया टेसू मुस्काये रे


गुन-गुन छेड़े पवन बसंती
धूप की झींसी हुलसाये रे, 
वसन हीन वन कानन में
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

ऋतु फाग के स्वागत में 
धरणी झूमी पहन महावर, 
अधर हुए सेमल के रक्तिम
सखुआ पाकड़ हो गये झांवर,

फुनगी आम्र हिंडोले बैठी
कोयलिया बिरहा गाये रे,
निर्जन पठार की छाती पर
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

ओढ़ ढाक की रेशमी चुनरी 
साँझ चबाये मीठी गिलौरी,
धनुष केसरी,भँवर प्रत्यंचा
बींधे भर-भर रंग कटोरी,
 
छींट-छींट चंदनिया चंदा
भगजोगनी संग इतराये रे,
रेशमी आँचल डुला-डुला
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

दह-दह,दह दहके जंगल
दावानल का शोर मचा, 
ताल बावड़ी लहक रहे
नभ वितान का कोर सजा,

गंधहीन पुष्पों की आँच 
श्वेत शरद पिघलाये रे,
टिटहरी की टिटकारी सुन
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

दान दधीचि-सा पातों का
प्रकृति करती आत्मोत्सर्ग,
नवप्रसून के आसव ढार
भरती सृष्टि में अष्टम् सर्ग,

लोलक-सी चेतना डोल रही
नयनों में टेसू भर आये रे,
हृदय की सूनी पगडंडी पर
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

#श्वेता सिन्हा
२५ फरवरी २०२१

Monday, 22 February 2021

दौर नहीं है



कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।
अर्थहीन शब्द मात्र,भावों के छोर नहीं हैं।

उम्मीद के धागों से भविष्य की चादर बुन लेते हैं
विविध रंगों से भ्रमित कोई चटक चित्र चुन लेते हैं
समय की दीर्घा में बैठे गुज़रती नदी की धार गिनते
बेआवाज़ तड़पती मीनों को नियति की मार लिखते

भेड़ों में हालात बदलने की होड़ नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।

चौहद्दी में बंद संवेदना,छद्म चीख़ का राज हुआ
शेर डटे हैं सरहद पर ,जंगल का राज़ा बाज़ हुआ 
कबतक प्रश्न टोकरी ढोये ,उत्तर ढूँढें बोझिल आँखें
कबतक बंधक दर्द को रखे,उड़ पायेंगी चोटिल पाँखें?

मौन की कोठरी,मात्र एक खोल नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।

हर बहस उन्मादित,चैतन्यता का दहन हुआ
स्वार्थी उद्दीपनों में नैतिकता का क्षरण हुआ
पूर्णता के मिथकीय दृश्य, मधुर स्वप्न टूटते रहे
दिशाहीन मरूभूमि में भटककर साथ छूटते रहे

बौद्धिक परिपक्वता में तृप्ति के बौर नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं है।

@श्वेता सिन्हा
 २२ फरवरी २०२१

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...