गुन-गुन छेड़े पवन बसंती
धूप की झींसी हुलसाये रे,
वसन हीन वन कानन में
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
धूप की झींसी हुलसाये रे,
वसन हीन वन कानन में
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
ऋतु फाग के स्वागत में
धरणी झूमी पहन महावर,
अधर हुए सेमल के रक्तिम
सखुआ पाकड़ हो गये झांवर,
फुनगी आम्र हिंडोले बैठी
कोयलिया बिरहा गाये रे,
निर्जन पठार की छाती पर
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
ओढ़ ढाक की रेशमी चुनरी
साँझ चबाये मीठी गिलौरी,
धनुष केसरी,भँवर प्रत्यंचा
बींधे भर-भर रंग कटोरी,
छींट-छींट चंदनिया चंदा
भगजोगनी संग इतराये रे,
रेशमी आँचल डुला-डुला
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
दह-दह,दह दहके जंगल
दावानल का शोर मचा,
ताल बावड़ी लहक रहे
नभ वितान का कोर सजा,
गंधहीन पुष्पों की आँच
श्वेत शरद पिघलाये रे,
टिटहरी की टिटकारी सुन
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
दान दधीचि-सा पातों का
प्रकृति करती आत्मोत्सर्ग,
नवप्रसून के आसव ढार
भरती सृष्टि में अष्टम् सर्ग,
लोलक-सी चेतना डोल रही
नयनों में टेसू भर आये रे,
हृदय की सूनी पगडंडी पर
जोगिया टेसू मुस्काये रे।
#श्वेता सिन्हा
२५ फरवरी २०२१