चित्र:मनस्वी प्राजंल
त्रिलोकी के नेत्र खुले जब
अवनि अग्निकुंड बन जाती
वृक्ष सिकुड़कर छाँह को तरसे
नभ कंटक किरणें बरसाती
बदरी बरखा को ललचाती
जब जेठ की तपिश तपाती
उमस से प्राण उबलता पल-पल
लू की लक-लक दिल लहकाती
मन के ठूँठ डालों पर झूमकर
स्मृतियाँ विहृ्वल कर जाती
पीड़ा दुपहरी कहराती
जब जेठ की तपिश तपाती
प्यासी नदियां,निर्जन गुमसुम
घूँट-घूँँट जल आस लगाए
चिचियाए खग व्याकुल चीं-चीं
पवन झकोरे आग लगाए
कलियाँ दिनभर में मुरझाती
जब जेठ की तपिश तपाती
#श्वेता सिन्हा