निर्लज्ज निमग्न होकर मन
देता है तुम्हें मूक निमंत्रण
और तुम निर्विकार,शब्द प्रहारकर
झटक जाते हो प्रेम अनदेखा कर
जब तुम्हारा मन नहीं होता...।
घनीभूत आसक्ति में डूबा
अपनी मर्यादा भूल
प्रणय निवेदन करता मन
तुम्हारे दर्शन बखान पर
अपनी दुर्बलताओं के भान पर
लजाकर सोचता है
तुम कितने निर्मोही हो जाते हो
जब तुम्हारा मन नहीं होता...।
मेरी आत्मीयता के विस्तार पर
तुम झट से खींच देते हो लक्ष्मण रेखा
मेरे सारे प्रश्नों को विकल,
अनुत्तरित छोड़ चले जाते हो
जब तुम्हारा मन नहीं होता...।
तुम्हारा सानिध्य आत्मिक सुख है
परंतु,तुम्हारे प्रेम के लिए सुपात्र नहीं मैं
अपनी अपात्रता पर ख़ुद ही खीझती हूँ
तुम्हारे अबोलेपन पर भी रीझती हूँ
तुम्हारे एहसास में अकेली ही भींजती हूँ
जब तुम्हारा मन नहीं होता...।
#श्वेता सिन्हा