मैं
नित्य सुनती हूँ
कराह
वृद्धों और रोगियों की,
निरंतर
देखती हूँ
अनगिनत जलती चिताएँ
परंतु
नहीं होता
मेरा हृदयपरिवर्तन।
मैं
ध्यानस्थ होती हूँ
स्वयं की खोज में
किंतु
इंद्रियों के सुख-दुख की
प्रवंचना में
अपने कर्मों की
आत्ममुग्धता के
अंधकार में
खो देती हूँ
आत्मज्योति।
मुझे
ज्ञात है
सुख-दुःख का
मूल कारण,
सत्य-अहिंसा-दया
एवं सद्कर्मों
की शुभ्रता
किंतु
मानवीय मन
विकारों के
वृहद विश्लेषण में
जन्म-मृत्यु
जड़-चेतन की
भूलभुलैय्या में
समझ नहीं पाता
जीवन का
का मूल उद्देश्य।
हे बुद्ध!
मैं
तुम्हारी ही भाँति
स्पर्श करना
चाहती हूँ
आत्मज्ञान के
चरम बिंदुओं को
किंतु
तुम्हारी तरह
सांसारिक बंधनों का
त्याग करने में
सक्षम नहीं,
परंतु
यह सत्य भी
जानती हूँ
जीवन के अनसुलझे,
रहस्यमयी प्रश्नों
विपश्यना,
"मैं से मोक्ष"
की यात्रा में
की यात्रा में
तुम ही
निमित्त
निमित्त
बन सकते हो
कदाचित्।
©श्वेता सिन्हा
७ मई २०२०
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