मुझे ठहरी हुई हवाएँ
बेचैन करती हैं
बर्फीली पहाड़ की कठिनाइयाँ
असहज करती है
तीख़ी धूप की झुलसन से
रेत पर पड़ी मछलियों की भाँति
छटपटाने लगती हूँ
किसानों की तरह जीवट नहीं
ऋतुओं की तीक्ष्णता सह नहीं पाती
मैं बीज भी तो नहीं
जो अंकुरित होकर
धान की बालियाँ बने
और किसी का पेट भर सके
मैं चिड़िया भी नहीं
जिसकी किलकारी से
मौन खिलखिला उठे
मैं पीपल या वट वृक्ष भी नहीं
जो असंख्य जीवों को
अपनी शाखाओं में समेटे
सुरक्षा का एहसास करा सके
मैं पहाड़ पर चढ़कर
बादलों में सपने नहीं भर सकी
मैं प्रेम भी नहीं हो सकी
जो मिटा सके मनुष्य के हृदय की
कलुषिता
मैं ज्ञान भी नहीं बन सकी
जो हो सके पुल
संभव और असंभव के बीच
मैं धूप-छाँव,नदी या झरना
भी नहीं
शायद... बारिश की वह बूँद हूँ
जो गर्म रेत में गिरते ही सूखकर
भाप बन जाती है
किसी कंठ की
प्यास भी नहीं बुझा सकती,
बेचैन करती हैं
बर्फीली पहाड़ की कठिनाइयाँ
असहज करती है
तीख़ी धूप की झुलसन से
रेत पर पड़ी मछलियों की भाँति
छटपटाने लगती हूँ
किसानों की तरह जीवट नहीं
ऋतुओं की तीक्ष्णता सह नहीं पाती
मैं बीज भी तो नहीं
जो अंकुरित होकर
धान की बालियाँ बने
और किसी का पेट भर सके
मैं चिड़िया भी नहीं
जिसकी किलकारी से
मौन खिलखिला उठे
मैं पीपल या वट वृक्ष भी नहीं
जो असंख्य जीवों को
अपनी शाखाओं में समेटे
सुरक्षा का एहसास करा सके
मैं पहाड़ पर चढ़कर
बादलों में सपने नहीं भर सकी
मैं प्रेम भी नहीं हो सकी
जो मिटा सके मनुष्य के हृदय की
कलुषिता
मैं ज्ञान भी नहीं बन सकी
जो हो सके पुल
संभव और असंभव के बीच
मैं धूप-छाँव,नदी या झरना
भी नहीं
शायद... बारिश की वह बूँद हूँ
जो गर्म रेत में गिरते ही सूखकर
भाप बन जाती है
किसी कंठ की
प्यास भी नहीं बुझा सकती,
उजाला,अंधेरा,
हरियाली,मरूभूमि, पहाड़,
सागर,सरिता,चिड़िया,चींटी
तितली,मौसम जैसी अनगिनत
रंगों की अद्भुत चित्रात्मक
कृतियों की तरह ही
सृष्टि ने
मुझको भी दी है
धरती की नागरिकता
अपने अधिकारों के
भावनात्मक पिंजरे में
फड़फड़ाती
जो न पा सकी उस
दुःख की गणना में
अपने मनुष्य जीवन के
कर्तव्यों को
पूरी निष्ठा से निभाने का शायद
ढोंग भर ही कर सकी।
जीवन की
यात्रा से असंतुष्ट
लासनायुक्त देह और
अतृप्त इच्छाओं के शापग्रस्त मन
का बोझ उठाये
अपने कर्मपथ की भूलभुलैया में
निरंतर चलती थक चुकी हूँ
मात्र भीड़ की एक देह
बनकर
अब जन्म-मरण के चक्र में
निरूद्देश्य और असंतुष्ट भटकना
मुझे स्वीकार नहीं
हे प्रकृति!
मुझे बंधनों से मुक्त करो!
मुझे स्वयं में
एकाकार कर
मुझे स्वयं में
एकाकार कर
मेरे अस्तित्व को
सार्थकता प्रदान करो।
सार्थकता प्रदान करो।
#श्वेता सिन्हा
३ मार्च २०२1
बनकर
ReplyDeleteअब जन्म-मरण के चक्र में
निरूद्देश्य और असंतुष्ट भटकना
मुझे स्वीकार नहीं
हे प्रकृति!
मुझे बंधनों से मुक्त करो
मुझे स्वयं में
एकाकार कर
मेरे अस्तित्व को
सार्थकता प्रदान करो ..संवेदना से भरी,अविरल बहती हुई मर्मस्पर्शी कविता अंतर्मन को बेध गई प्रिय श्वेता जी ..सुंदर भावपूर्ण सृजन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं..
बहुत आभारी हूँ प्रिय जिज्ञासा जी।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
जीवन की
ReplyDeleteयात्रा से असंतुष्ट
लसनायुक्त देह और
अतृप्त इच्छाओं के शापग्रस्त मन
का बोझ उठाये
अपने कर्मपथ की भूलभुलैया में
निरंतर चलती थक चुकी हूँ
...
उत्कृष्ट रचना।
सादर।
प्रिय सधु जी बहुत आभारी हूँ।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 04.03.2021 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत आभारी हूँ आदरणीय सर।
Deleteसादर।
प्रकृति के सौंदर्य के साथ स्वयं को एकाकार कर अपनी भावनाओं को शब्द दिए हैं ।बेहतरीन रचना ।
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ आदरणीया दीदी।
Deleteसादर प्रणामः
संभव और असंभव के बीच
ReplyDeleteमैं धूप-छाँव,नदी या झरना
भी नहीं
शायद... बारिश की वह बूँद हूँ
जो गर्म रेत में गिरते ही सूखकर
भाप बन जाती है
किसी कंठ की
प्यास भी नहीं बुझा सकती----उत्कृष्ट रचना
बहुत आभारी हूँ आदरणीय सर।
Deleteसादर शुक्रिया।
प्रिय श्वेता, धरती की नागरिकता जैसे भावपूर्ण वाक्य पर केंद्रित और स्वयं के अस्तित्व को सिरे से नकारती रचना को कवि मन की विनम्रता की अतिशयता कहूँ या मायूसी से भरे मन का असमय जीवन से पलायन का प्रयास। प्रकृति में एकाकार होना जीवन का अंतिम गंतव्य है क्योंकि जहाँ से जीवन यात्रा शुरू होती है, समाप्त भी वहीं होती है। रचना में व्याप्त नैराष्य भाव सोचने पर विवश कर गए। पर चिंतन की विहंगमता में तुम्हारा कोई सानी नहीं। जन्म दिन की पुनः शुभकामनाएँ। खूब आगे बढ़ो यही कामना है। हार्दिक स्नेह के साथ।
ReplyDeleteजी दी प्रणाम,
Deleteमैंने कविता में प्रकृति में समाहित निःस्वार्थ भाव और मनुष्य मन में निहित स्व के भाव बताने का प्रयास किया है।
जीवन मृत्यु के विचार मनुष्य मन को विचलित करते हैं किंतु स्वयं को प्रकृति का अंश मान लें अगर तो सारे भेद मिट जाते हैं।
निराशावादी कुछ भी नहीं है महज सत्य ही है जिसे सहजता से स्वीकार कर लें तो जीवन के दुखों का भाव कम महसूस हो मेरे विचार से।
आपका स्नेह मिला और रचना का भाव हम स्पष्ट कर पाये बहुत धन्यवाद दी।
सस्नेह शुक्रिया।
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ सर।
Deleteसादर प्रणाम।
बहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ प्रिय अनुराधा जी।
Deleteसादर शुक्रिया।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ प्रिय ज्योति जी।
Deleteसादर शुक्रिया।
उत्तम ! संवेदनाओं से रचित भावाभिव्यक्ति।।
ReplyDeleteएक प्रश्न उत्पन्न कर रही है.... प्रकृति में एकाकार होने भर से कोई मुक्त होता है क्या??
सस्नेह।
जी प्रणाम दी,
Deleteप्रकृति में एकाकार होकर
जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो पायें शायद...।
आपका स्नेह मिला।
बहुत आभारी हूँ दी।
सस्नेह शुक्रिया।
हृदय की गहनता से अपनी संपूर्ण पीड़ा को अभिव्यक्त किया है आपने ।
ReplyDeleteआदरणीय सर,
Deleteये महज किसी एक व्यक्ति के मन के भाव नहीं प्रकृति और मनुष्य का संवाद जीवन का शाश्वत सत्य है।
सादर शुक्रिया।
क्या बात है, बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ आदरणीय सर।
Deleteसादर प्रणाम।
आपका स्नेह है प्रिय दी।
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ।
सादर।
ReplyDeleteआदरणीया मैम,
सब से पहले तो जन्मदिन की अनेकों शुभकामनाएं।
आपकी यह रचना इतनी सुंदर है कि मेरे पास शब्द ही नहीं है कहने के लिये ।
माँ प्रकृति से ऐसी करुण प्रार्थना और उनमें एकाकार होने की कामना...... ।
आपकी इस रचना को पढ़ते हुए पुनः आपकी कोमलता और परोपकार सामने उभर कर आता है। आपकी इस रचना को पढ़ कर ऐसा लगता है मानों आँखों के आगे आपको देख रही हूँ। अनेकों प्रणाम।
और कुछ नही कह सकती, लगता कोई और शब्द लिखूँगी तो नाहक इस रचना की सुंदरता घटा दूँगी।
प्रिय अनंता,
Deleteतुम्हारी स्नेहमयी प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत प्यार। तुम्हारी उत्सावर्धक सराहना सदैव मुस्कुराहट दे जाती है।
सदा खुश रहो।
सस्नेह शुक्रिया।
आध्यात्मिकता का उत्कर्ष..... यह मेरी नानी की ओर से।
ReplyDeleteनानी जी को सादर प्रणाम।
Deleteआशीष मिलता रहे सदैव।
विडम्बनाओं के इस दौर में जीवन को जीना सबसे कठिन काम हो गया है.
ReplyDeleteमानसिक प्रताड़नाओं से देह तो झुलस ही रहा है
समूचा वातावरण भी झुलस रहा है.
इस पीड़ा को आपने अपनी इस रचना में जिस ईमानदारी से शब्दों में पिरोया है, वाकई कमाल का है.
प्रभावी ऒर सशक्त रचना
बहुत बधाई
बहुत-बहुत आभारी हूँ आदरणीय सर।
Deleteसादर प्रणाम।
इस रचना में मैं स्वयं को निकट पाया।
ReplyDeleteसामर्थ्य और असमार्थ्य का यह विश्लेषण स्वयं को प्रकृति के और निकट जाने का मौका देता है। मुझे यह पवित्र आत्मा की कविता लगी।
सादर प्रणाम सह शुभकामनायें।
बहुत-बहुत आभारी हूँ भाई।
Deleteसादर शुक्रिया।
प्रभावशाली और सशक्त रचना के लिए आपको बधाई। आपको शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभारी हूँ.वीरेंद्र जी।
Deleteसादर शुक्रिया।
पवित्र,
ReplyDeleteपलायनवादी झलक,
खुद की पहचान,
सुंदर रचना।
देरी से ही सही पर
हैप्पी बर्थडे प्रिय दी।
💐
पलायनवादी नहीं है एक विचार और संवाद है प्रकृति और मानव मन के मध्य।
Deleteबहुत आभारी हूँ भाई आपकी शुभकामनाओं के लिए।
सस्नेह शुक्रिया।
लाजवाब, सबने सही,सुंदर कहा, मैं क्या कहूँ इसी सोच मे हूँ, हृदयस्पर्शी, भावपूर्ण बेहतरीन रचना, ढेरों शुभकामनाएं एवं बधाई हो आपको,
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभारी हूँ प्रिय ज्योति जी।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
सादर।
लाजवाब, सबने सही,सुंदर कहा, मैं क्या कहूँ इसी सोच मे हूँ, हृदयस्पर्शी, भावपूर्ण बेहतरीन रचना, ढेरों शुभकामनाएं एवं बधाई हो आपको,
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभारी हूँ प्रिय ज्योति जी।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
सादर।
"अब जन्म-मरण के चक्र में
ReplyDeleteनिरूद्देश्य और असंतुष्ट भटकना
मुझे स्वीकार नहीं
हे प्रकृति!
मुझे बंधनों से मुक्त करो!
मुझे स्वयं में
एकाकार कर
मेरे अस्तित्व को
सार्थकता प्रदान करो।" - एक निराशावादी सोच और विरोधाभासी भी .. शायद ... "बंधन से मुक्ति" भी और "सार्थकता" भी !?
क़माल है, अन्योन्याश्रय सम्बन्ध में जो सार्थकता है, वो भला मुक्ति में कहाँ ? अपनी वर्त्तमान सार्थकता को कम आँकना एक भूल या भ्रम है .. शायद ... ऐसी सोचें स्वयं के साथ-साथ आसपास भी निराशा पनपाती है .. शायद ...
मेरी एक बतकही (?) "अन्योन्याश्रय रिश्ते" की चार पंक्तियाँ
"है नारी संबल प्रकृति-सी,
सार्थक पुरुष-जीवन तभी।
फिर क्यों नारी तेरे मन में
है भरी हीनता मनोग्रंथि ?" .. बस यूँ ही ... :)
जी,
Deleteमेरी कविता का भाव विरोधाभासी और निराशावादी सोच आपके दृष्टिकोण से है परंतु मेरे विचार से आत्ममंथन से उत्पन्न भाव है जो मनुष्य को जीवन मरण से तटस्थ करते हैं।
वर्तमान, यथार्थ पर आपके तर्क तथ्यपूर्ण और विचारणीय हैं।
आपकी बतकही के अनुसार हीनग्रंथि का लेशमात्र विचार नहीं मेरी रचना में मात्र अपने कर्मों से असंतुष्टि ही है।
आपने बहुमूल्य समय दिया समीक्षा की बहुत बहुत आभारी हूँ।
आपकी प्रतिक्रिया सदैव मंथन को आमंत्रित करती हैं।
शुक्रिया आपका।
सादर।
बहुत मार्मिक चित्रण... आपके इस रचना को पढ़ने के बाद अच्छा लिखने की प्रेरणा मिली आपका धन्यवाद. कभी समय निकाल के मेरे ब्लॉग पे भी पधारे.
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ हरीश जी।
Deleteसादर शुक्रिया।
मर्मस्पर्शी रचना। प्रकृति जब अपने बंधन में बांधती है तो उससे मुक्त होने की हम सिर्फ कामना ही कर सकते हैं, अपनी इच्छा से कुछ नहीं होता।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभारी हूँ.आदरणीय यशवंत जी।
Deleteस्वागत है आपका।
सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए अत्यंत आभार.
सादर शुक्रिया।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सराहनीय रचना ।
Deleteबहुत सुन्दर सराहनीय रचना
ReplyDeleteबेहतरीन चित्रण, खूबसूरत रचना
ReplyDeleteसृष्टि ने
ReplyDeleteमुझको भी दी है
धरती की नागरिकता
अपने अधिकारों के
भावनात्मक पिंजरे में
फड़फड़ाती
जो न पा सकी उस
दुःख की गणना में
अपने मनुष्य जीवन के
कर्तव्यों को
पूरी निष्ठा से निभाने का शायद
ढोंग भर ही कर सकी। ----------------बहुत सुन्दर रचना
प्रकृति और हम मनुष्यों की तुलना यदि सटीकता से की जाय तो समझ आता है कि हम कुछ भी नहीं
ReplyDeleteसोच और चिंतन से हमारा मैं प्रकृति के आगे नतमस्तक हो जाता है बुद्धि का अहम रखने वाले हम मनुष्य किसी भी तरफ से प्रकृति के सामने बहुत ही तुच्छ हैं। और फिर मन इस सच को हृदय से स्वीकारता है.... कि....
मुझको भी दी है
धरती की नागरिकता
अपने अधिकारों के
भावनात्मक पिंजरे में
फड़फड़ाती
जो न पा सकी उस
दुःख की गणना में
अपने मनुष्य जीवन के
कर्तव्यों को
पूरी निष्ठा से निभाने का शायद
ढोंग भर ही कर सकी।
बहुत ही चिन्तनपरक लाजवाब सृजन।
एक अविस्मरणीय अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteहम आपको पढ़ने आए और आपकी लेखनी हमपर अपना प्रभाव न डाले यह तो असंभव सी बात है। आपको पढ़ते हुए अंतर में चल रही पुरानी हलचल कहीं गुम हो गई और एक नई हलचल ने जन्म ले लिया 😍...कुछ तो जादू है आपकी लेखनी में।
ReplyDelete" धरती की नागरिकता "...यह कहकर तो बहुत कुछ कह गई आपकी लेखनी। एक अद्भुत सत्य जिसका बस कुछ लोगों को आभास है पर जानते सब हैं। प्रकृति में एकाकार होने का भाव आपके मन की पवित्रता और समदर्शिता का प्रमाण है। आपकी लेखनी को बारंबार प्रणाम है 🙏
हे प्रकृति!'------प्रकृति से विकल मन का मार्मिक संवाद है जिसमें प्रकृति से अधिकारपूर्वक सब कुछ लेकर,कर्तव्य रूप में कुछ भी न कर पाने की विवशता अंकित है।इस वेदना की समाप्ति काएकमात एकमात्र निवारण प्रकृति में समग्रता से लीन होना है
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 05 जून 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
तुम भी प्रकृति की एक काया हो , वृक्ष , चिड़िया , फसलें , प्रेम भाव सभी जैसे अपने अपने कर्म करते हैं वैसे ही तुम भी अपने कर्म कर रही हो जो तुमको उत्साहित नहीं कर रहे । बस सोच का यही अंतर है । प्रकृति ने तो अपने अंदर समाहित करके ही तुमको इस धरती का नागरिक बनाया है ।।
ReplyDeleteवैसे आत्म मंथन ज़बरदस्त है । विचारणीय रचना
वाह!!श्वेता ,दिल को छू गई अंदर तक । वैसे भी आप शब्दों की जादूगरनी हो ...।अगर हम स्वयं को प्रकृति का अंश ही मान लें तो फिर बात ही क्या ,अस्तित्व को सार्थकता मिल ही जाएगी ।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत प्रस्तुति
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