अक्सर जब शाम की डोली
थके हुये घटाओं के
शानों से उतरती है
छनकती चाँदनी की पाजेब से
टूटकर घुँघरू
ख़्वाबों के आँगन बिखरती है
ख़ामोश दरख़्तों के
गीली बाहों में
परिदों के सो जाने के बाद
बेआवाज़
पत्तियाँ जुगनुओं से
रातभर बातें करती हैं।
स्याह दामन के नर्म
तन्हाइयों में सोयी
दूध-सी झीलों के
बियाब़ां किनारे पर
ख़ामोशी के रेज़ों को
चुन-चुनकर
शब झोली में भरती है।
लम्हा-लम्हा सरकती रात
हवाओं की थपकियों से
बेज़ान लुढ़क कर
पहाड़ी के कोहान पर
सिर टिकाये
भोर की राह तकती है।
#श्वेता सिन्हा