विचारों के विशाल
सिंधु की लयबद्ध
लहरें मथती रहती है
अनवरत,
मंथन से प्राप्त
विष-अमृत के घटो का
विश्लेषण करता
जीवन नौका पर सवार
'उम्र'...
सीमाहीन मन
शापग्रस्त देह लिए...
नाव के पाल पर बैठे
अनजान पक्षी की
भाषा में उलझकर
अक़्सर भटक जाती है
मंजिल से
भूलकर यात्रा का उद्देश्य।
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जन्म-मरण के
प्राकृतिक चक्र की
सरल परिभाषा को
जोड़ती
काल्पनिक, अदृश्य रेखा
उम्र के हर घुमाव पर
गहरी होती जाती है।
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उम्र का हर पड़ाव
पहाड़ की पगडंडी सा
प्रतीत होता है
जिनके डंठल में
उगे उमंग से भरे
नन्हें गाँव के
आकर्षण में
यात्रा की दुरूहताओं
को पथिक स्वीकारता है।
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जीवनभर की
यात्राओं में
चलता रहता है,
समय की गंधहीन
आँच में तपकर निरंतर
बदलता रहता है
देह का मौसम
किंतु
उम्र अटकी रह जाती है
कभी किसी
बसंत में खिले
पलाश की टहनियों पर।
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#श्वेता सिन्हा
१८ मार्च २०२१