Saturday, 16 December 2017

विधवा


नियति के क्रूर हाथों ने
ला पटका खुशियों से दूर,
बहे नयन से अश्रु अविरल
पलकें भींगने को मजबूर।

भरी कलाई,सिंदूर की रेखा
है चौखट पर बिखरी टूट के
काहे साजन मौन हो गये
चले गये किस लोक रूठ के
किससे बोलूँ हाल हृदय के
आँख मूँद ली चैन लूट के

छलकी है सपनीली अँखियाँ
रोये घर का कोना-कोना
हाथ पकड़कर लाये थे तुम
साथ छूटा हरपल का रोना
जनम बंध रह गया अधूरा
रब ही जाने रब का टोना

जीवन के कंटक राहों में
तुम बिन कैसे चल पाऊँगी?
तम भरे मन के झंझावात में
दीपक मैं कहाँ जलाऊँगी?
सुनो, न तुम वापस आ जाओ
तुम बिन न जी पाऊँगी

रक्तिम हुई क्षितिज सिंदूरी
आज साँझ ने माँग सजाई
तन-मन श्वेत वसन में लिपटे 
रंग देख कर आए रूलाई
रून-झुन,लक-दक फिरती 'वो',
ब्याहता अब 'विधवा' कहलाई

    #श्वेता🍁

Tuesday, 12 December 2017

किसी साँझ के किनारे


किसी साँझ के किनारे
पलकें मूँदती हौले से,
आसमां से उतरकर
पेडों से शाखों से होकर
पत्तों का नोकों से फिसलकर,
ख़ामोश झील के
दूर तक पसरे सतह पर
कतरा-कतरा पिघलकर
सूरज की डूबती किरणें
गुलाबी रंग घोल देती है,
रंगहीन मन के दरवाजे पर
दस्तक देती साँझ, 
स्याह आँगन में
जलते बुझते टिमटिमाते
सपनीली ख़्वाहिशों के सितारे
मौन वेदना लिए निःशब्द
प्रतीक्षारत से वृक्ष,
जो अक्सर बेचैन करते है
गुलाबी झील में गुम हुई
परछाईयों में यादों को,
ढूँढता है मन संवेदनाओं में
लिपटे गुजरे कुछ पल,
उस उदास झील के 
तन्हा गुलाबी किनारे पर।

          #श्वेता



Monday, 11 December 2017

क्या हुआ पता नहीं


क्यों ख़्यालों से कभी
ख़्याल तुम्हारा जुदा नहीं,
बिन छुये एहसास जगाते हो
मौजूदगी तेरी लम्हों में,
पाक बंदगी में दिल की
तुम ही हो ख़ुदा नहीं।

ज़िस्म के दायरे में सिमटी
ख़्वाहिश तड़पकर रूलाती है,
तेरी ख़ुशियों के सज़दे में
काँटों को चूमकर भी लब
सदा ही मुसकुराते हैं
तन्हाई में फैले हो तुम ही तुम
क्यों तुम्हारी आती सदा नहीं।

बचपना दिल का छूटता नहीं
तेरी बे-रुख़ी की बातों पर भी
दिल तुझसे रूठता नहीं
क़तरा-क़तरा घुलकर इश्क़
सुरुर बना छा गया
हरेक शय में तस्वीर तेरी
उफ़!,ये क्या हुआ पता नहीं....!

#श्वेता🍁

Sunday, 10 December 2017

ख़्यालों में कोई


शाख़ से टूटने के पहले
एक पत्ता मचल रहा है।
उड़ता हुआ थका वक्त,
आज फिर से बदल रहा है।

गुजरते सर्द लम्हों की
ख़ामोश शिकायत पर
दिन ने कुछ धूप जमा की है,
साँझ की नम आँगन में
चाँदनी की शामियाने तले
दर्द के शरारों का दखल रहा है।

सहेजकर रखे याद के खज़ानें में
एक-एक कीमती नगीना 
गुलाबी रुमाल में बाँधकर
पिटारे में जो रक्खी थी,
उन महकते ख़तों से निकलकर
ख़्यालों में कोई मचल रहा है।

बड़ी देर से थामकर रखी है
कच्ची सी डोर उम्मीद की
कुछ खोने-पाने के डर से परे
अभिमंत्रित पूजा की ऋचाओं सी,
हृदय के महीन तारों से लिपटा
प्रेम ही प्रेम पवित्र सकल रहा है।

       #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...