Tuesday, 28 April 2020

मन.....तिरस्कार


मन के
एकांत 
गढ़ने लगते हैं
भावनाओं के
छोटे-छोटे टापू,
निरंतर 
सोच की लहरों में
डूबता-उतराता,
अंतर्मन के विकल नाद से
गूँजता वीरान टापू
पकड़कर उंगली
ले जाना चाहता है 
पूर्वाग्रहों के विश्लेषण
से प्रतिबिंबित,
भ्रामक परिदृश्यों के
उलझे जाल में।

 मन
परिस्थितियों की
उद्विग्नता से
उद्वेलित,
विचलित होकर
अपने अस्तित्व की
सार्थकता टोहता,
मोह की मरीचिका को
पाने की लालसा में
टकराता है
रेतीली भूमि की सतह से,
नेह की आस में 
फैली हथेलियों पर,
तिरस्कार की संटियों
के गहरे निशान
भींची अंजुरी में छुपाये
वापस लौटता है,
छटपटाता,खीझता
अपनी मूढ़ता पर,
जीवन से विरक्त
पाना चाहता है मुक्ति
मोह की अकुलाहट से,
और....
कामना करता है
पल-पल, हरपल
अपने हृदय के
भावनाओं के 
तरल प्रवाह का
पाषाण-सा
स्पंदनहीन हो 
जाने की।

© श्वेता सिन्हा
२८अप्रैल २०२०



Sunday, 26 April 2020

जलते चूल्हे


भूख के एहसास पर
आदिम युग से
सभ्यताओं के पनपने के पूर्व
अनवरत,अविराम
जलते चूल्हे...
जिस पर खदकता रहता हैं
अतृप्त पेट के लिए
आशाओं और सपनों का भात, 
जलते चूल्हों के
आश्वासन पर 
निश्चित किये जाते हैं
वर्तमान और भविष्य की
परोसी थाली के निवाले
 उठते धुएँ से जलती
पनियायी आँखों से
टपकती हैं 
 मजबूरियाँ
कभी छलकती हैं खुशियाँ,
धुएँ की गंध में छिपी होती हैं
सुख-दुःख की कहानियाँ
जलती आग के नीचे
सुलगते अंगारों में
लिखे होते हैं 
आँँसू और मुस्कान के हिसाब
बुझी आग की राख में
उड़ती हैंं
पीढ़ियों की लोक-कथाएँ
बुझे चूल्हे बहुत रूलाते हैं
स्मरण करवाते हैं
जीवन का सत्य 
कि यही तो होते हैं 
मनुष्य के
 जन्म से मृत्यु तक की 
यात्रा के प्रत्यक्ष साक्षी।

#श्वेता सिन्हा
२६अप्रैल२०२०
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मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...