कच्ची उमर के पकते सपने
महक जाफ़रानी घोल रही है।
घर-आँगन की नन्ही बुलबुल
हौले-हौले पर खोल रही है।
मुस्कान,हँसी,चुहलबाज़ी
मासूम खेल की अनगिनी बाज़ी
स्मृतियों की गुल्लक में
उम्र रेज़गारी जोड़ रही है।
घर-आँगन की नन्ही बुलबुल
हौले-हौले पर खोल रही है।
क़लम,कॉपी किताब की दुनिया
बाँध कलाई से समय की पुड़िया,
विस्तृत प्रागंण में नभ के
स्वप्नों की डिबिया टटोल रही है।
घर-आँगन की नन्ही बुलबुल
हौले-हौले पर खोल रही है।
बादल,बारिश,जंगल,जुगनू
सूरज,चंदा,तारों के घुँघरू,
मीन नयन की टोह लिए
नौका लहरों पर डोल रही है।
चटक-चटक आकाश झरे,
दिग्दिगंत अचरज से भरे,
कैनवास पर उड़ती तितली
रहस्य नक्षत्र के बोल रही है।
घर-आँगन की नन्ही बुलबुल
हौले-हौले पर खोल रही है।
---------$$-------
#श्वेता सिन्हा
१८ जुलाई २०२१