Thursday, 1 August 2024

प्रेम-पत्र



 सालों बाद मन पर आज फिर
बारिशों की टिपटिपाहट 
दस्तक देने लगी
उदासियों के संदूक खोलकर
तुम्हारे अनलिखे प्रेम-पत्र पढ़ते हुए
भावों के आवरण में क़ैद होना
बहुत अच्छा लग रहा...।

मन के आँचल की छोर से बँधी
मधुमास की गाँठ-सी
तपती दुपहरी में
विरहणी की हूक-सी उठती
तुम्हारी स्मृतियाँ,
मौन की उष्णता से 
आँखों से पिघलता खारापन, 
छटपटाहट और बेबसी
तुम्हारे व्यवहार से उत्पन्न
अनुत्तरित प्रश्नों के प्रेम-पत्र
अब सँभाले नहीं जाते .. ।

क्षितिज में डूबते सूरज से
इंद्रधनुष के रंग चुनने का प्रयास
हास्यास्पद है न...?
रात के नुकीले
ठंडेपन से घबराकर
ढूँढने लगती हूँ
ख़ुशबू तुम्हारे एहसास में लिपटे,
चाँदनी की चुनरी ओढ़े 
स्वप्निल कामनाओं से बोझिल
आँखें,तरसती हैं नींद को
भोर के शोर की बाट जोहती 
तारों के झुरमुट में जुगनू-सी
जलती-बुझती हूँ तुम्हारे अनलिखे
प्रेम-पत्र पढ़ते हुए...।

जीवन के सरगम में
मिठास घोल दूँ,तुम्हें सुकून मिले
ऐसा कोई स्वर नहीं मैं,
शायद,तुम्हारे होठों की मुस्कान भी नहीं
हमने साथ मिलकर देखे नहीं कोई स्वप्न
तुमने नहीं जताया कभी कुछ भी
नदी के किनारों की तरह हैं हम
हाँ ,मैं नहीं हूँ प्रेयसी तुम्हारी
पर फिर भी, हमारे मौन अंतरालों में
अस्पष्ट उपस्थिति तुम्हारी,
तुम्हारे द्वारा अप्रेषित
 प्रेम-पत्रों की साक्षी है...।

जाने रंग बदल रहे हैं कितने
नयी बारिश ,नये मौसम 
उम्र के खाते में बढ़ते 
निर्विकार,भावहीन, रसहीन पल
कब तक सँभाल पाएँगे
अनलिखे प्रेम-पत्रों के पुलिंदे को,
क्या करूँ...?
हवाओं में घोल दूँ,
पहाडों के गर्भ में दबा दूँ;
नदियों में बहा दूँ;
धूप में सुखा दूँ;
या हरसिंगार की जड़ में रोप दूँ...?
सोचती हूँ...
अनछुई,सद्य प्रकृति को सौंप दूँ, 
बंधनमुक्त होकर ही तो अनुभूतियाँ
हो जायेंगी प्रार्थनाएँ,
चिरकाल तक 
अनहद नाद फूटकर जिससे
पवित्र करती रहेंगीं
धरा और अंतरिक्ष के मध्य फैले
प्रेम के जादुई संसार को...।
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-श्वेता

१अगस्त२०२४

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