अक्सर जब शाम की डोली
थके हुये घटाओं के
शानों से उतरती है
छनकती चाँदनी की पाजेब से
टूटकर घुँघरू
ख़्वाबों के आँगन बिखरती है
ख़ामोश दरख़्तों के
गीली बाहों में
परिदों के सो जाने के बाद
बेआवाज़
पत्तियाँ जुगनुओं से
रातभर बातें करती हैं।
स्याह दामन के नर्म
तन्हाइयों में सोयी
दूध-सी झीलों के
बियाब़ां किनारे पर
ख़ामोशी के रेज़ों को
चुन-चुनकर
शब झोली में भरती है।
लम्हा-लम्हा सरकती रात
हवाओं की थपकियों से
बेज़ान लुढ़क कर
पहाड़ी के कोहान पर
सिर टिकाये
भोर की राह तकती है।
#श्वेता सिन्हा
वाह क्या कहने .... शाम की डोली 👌👌
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा सृजन
जी आभारी हूँ दी...शुक्रिया।
Deleteबहुत उम्दा
ReplyDeleteजी आभारी हूँ लोकेश जी शुक्रिया।
Deleteवाह बेहद खूबसूरत रचना श्वेता जी
ReplyDeleteजी आभारी हूँ अनुराधा जी शुक्रिया।
Deleteबहुत सुंदर ....
ReplyDeleteजी आभारी हूँ कामिनी जी शुक्रिया।
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी आभारी हूँ शुक्रिया।
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteजी आभारी हूँँ सर....शुक्रिया।
Delete
ReplyDeleteलम्हा-लम्हा सरकती रात
हवाओं की थपकियों से
बेज़ान लुढ़क कर
पहाड़ी के कोहान पर
सिर टिकाये
भोर की राह तकती है।
अत्यंत सुन्दर👌👌
आभारी हूँ दी शुक्रिया।
Delete
ReplyDeleteलम्हा-लम्हा सरकती रात
हवाओं की थपकियों से
बेज़ान लुढ़क कर
पहाड़ी के कोहान पर
सिर टिकाये
भोर की राह तकती है।!!!!!!!!! सुंदर !
आभारी हूँ दी..शुक्रिया।
Deleteजी आभारी हूँ शुक्रिया सर।
ReplyDeleteआभारी हूँ शिवम् जी...बहुत शुक्रिया।
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर कविता। सादर।
ReplyDeleteबेज़ान लुढ़क कर
ReplyDeleteपहाड़ी के कोहान पर
सिर टिकाये
भोर की राह तकती है... सुंदर !