Friday, 7 June 2019

रात


अक्सर जब शाम की डोली
थके हुये घटाओं के
शानों से उतरती है
छनकती चाँदनी की पाजेब से
टूटकर घुँघरू
ख़्वाबों के आँगन बिखरती है

ख़ामोश दरख़्तों के
गीली बाहों में
परिदों के सो जाने के बाद
बेआवाज़ 
पत्तियाँ जुगनुओं से
रातभर बातें करती हैं।

स्याह दामन के नर्म 
तन्हाइयों में सोयी 
दूध-सी झीलों के
बियाब़ां किनारे पर
ख़ामोशी के रेज़ों को 
चुन-चुनकर
शब झोली में भरती है।

लम्हा-लम्हा सरकती रात
हवाओं की थपकियों से
बेज़ान लुढ़क कर
पहाड़ी के कोहान पर 
सिर टिकाये 
भोर की राह तकती है।

 #श्वेता सिन्हा

20 comments:

  1. वाह क्या कहने .... शाम की डोली 👌👌
    बहुत ही उम्दा सृजन

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    1. जी आभारी हूँ दी...शुक्रिया।

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    1. जी आभारी हूँ लोकेश जी शुक्रिया।

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  3. वाह बेहद खूबसूरत रचना श्वेता जी

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    1. जी आभारी हूँ अनुराधा जी शुक्रिया।

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  4. बहुत सुंदर ....

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    1. जी आभारी हूँ कामिनी जी शुक्रिया।

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  5. बहुत सुन्दर

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    1. जी आभारी हूँ शुक्रिया।

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  6. Replies
    1. जी आभारी हूँँ सर....शुक्रिया।

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  7. लम्हा-लम्हा सरकती रात
    हवाओं की थपकियों से
    बेज़ान लुढ़क कर
    पहाड़ी के कोहान पर
    सिर टिकाये
    भोर की राह तकती है।
    अत्यंत सुन्दर👌👌

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    1. आभारी हूँ दी शुक्रिया।

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  8. लम्हा-लम्हा सरकती रात
    हवाओं की थपकियों से
    बेज़ान लुढ़क कर
    पहाड़ी के कोहान पर
    सिर टिकाये
    भोर की राह तकती है।!!!!!!!!! सुंदर !

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    1. आभारी हूँ दी..शुक्रिया।

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  9. जी आभारी हूँ शुक्रिया सर।

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  10. आभारी हूँ शिवम् जी...बहुत शुक्रिया।

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  11. वाह बहुत सुन्दर कविता। सादर।

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  12. बेज़ान लुढ़क कर
    पहाड़ी के कोहान पर
    सिर टिकाये
    भोर की राह तकती है... सुंदर !

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शुक्रिया।

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