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Monday, 21 October 2019

अधिकार की परिभाषा

परिभाषा
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जब देखती हूँ 
अपनी शर्तों पर
ज़िंदगी जीने की हिमायती
माता-पिता के
प्रेम और विश्वास को छलती,
ख़ुद को भ्रमित करती,
अपनी परंपरा,भाषा और संस्कृति 
को "बैकवर्ड थिंकिंग" कहकर
ठहाके लगाती
नीला,लाल,हरा और
किसिम-किसिम से
रंगे कटे केश-विन्यास
लो जींस और टाइट टॉप
अधनंगें कपड़ों को आधुनिकता का
प्रमाण-पत्र देती
उन्मुक्त गालियों का प्रयोग करती
सिगरेट के छल्ले उड़ाती
आर्थिक रुप से सशक्त,
आत्मनिर्भर होने की बजाय
यौन-स्वच्छंदता को आज़ादी
का मापदंड मानती
अपने मन की प्रकृति प्रदत्त
कोमल भावनाओं
को कुचलकर
सुविधायुक्त जीवन जीने
के स्वार्थ में
अपने बुज़ुर्गों के प्रति
संवेदनहीन होती
लड़कों के बराबरी की
 होड़ में दिशाहीन
 आधा तीतर आधा बटेर हुई
 बेटियों को देखकर
 सोचती हूँ
आख़िर हम अपने
किस अधिकार की
लड़ाई की बात करते हैं?
क्या यही परिभाषा है
स्त्रियों की
आज़ादी और समानता की?

#श्वेता सिन्हा

हस्ताक्षर पत्रिका के मार्च अंक में प्रकाशित।
https://www.hastaksher.com/rachna.php?id=2293


23 comments:

  1. बहुत ही उम्दा

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    1. आभारी हूँ लोकेश जी।
      सादर।

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  2. सटीक प्रश्न उठाया आपने

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    1. आभारी हूँ अनिता जी।
      सादर।

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  3. आधा तीतर आधा बटेर हुई
    बेटियों को देखकर
    सोचती हूँ
    आख़िर हम अपने
    किस अधिकार की
    लड़ाई की बात करते हैं?
    गहन सोच का परिणाम..
    साधुवाद..
    सादर..

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    1. आभारी हूँ सर।
      सादर प्रणाम।

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  4. लड़कों के बराबरी की
    होड़ में दिशाहीन
    आधा तीतर आधा बटेर हुई
    और लड़के कबूतर

    वाह

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    1. आभारी हूँ सर।
      सादर प्रणाम।

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  5. आज़ादी और समानता की परिभाषा बदल रही हैं या दिशाहीन हैं

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    1. जी प्रणाम दी,
      दिशाहीन होकर हर परिभाषा बदलना चाहती हैं जिससे कुछ हासिल नहीं होगा..।
      आभारी हूँ दी सादर।

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  6. लड़कों के बराबरी की
    होड़ में दिशाहीन
    आधा तीतर आधा बटेर हुई


    धीरे धीरे बढ़ते हुए एक भयानक तूफान की ओर ध्यान आकर्षित करती रचना

    शुभकामनाएं श्वेता जी

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  7. लड़कियों को लगता है वे आजादी की ओर बढ़ रहीं हैं पर समझ नहीं आती कि बर्बादू की ओर बढ़ रहीं हैं।कुछेक माता-पिता भी कहते हैं पर्दा और लाज लड़कियों के लिए ही क्यों । खैर सोंच अपनी-अपनी ।फिर वही आधा तीतर,आधा बटेर और गुटरगू करता कबूतर।

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  8. मैं अक्सर लड़कियों के छोटे कपड़ो पर टिप्पणी करने की हिम्मत कर लेता हूँ। प्रतिउत्तर में गवाँर जैसे शब्दों से नवाजा भी गया हूँ काफ़ी बार। फिर भी मोदी जी वाली कंटीली स्माइल अपने चेहरे पर रहती है।
    सम्पूर्ण आज़ादी का मतलब केवल विकसित होने से है न कि आदिम जमाने में लौट जाने से है जहां लड़कियां न के बराबर कपड़े पहनती थी यहां तक कि पुरुष भी।
    लाख जमाना छोटे कपड़ो के फेवर में बोलता हो लेकिन यही छोटे कपड़े शतप्रतिशत लड़को की सोच में नकारात्मक ऊर्जा भर देते हैं।
    फिर उल्टा चोर कोतवाल को कहता है कि अपनी नज़र बदलो; तो नजर तो सही ही होती है लेकिन लड़कियों के पहनावे को देख कर बदल जाती है।
    अपनी लड़कियों को मॉडर्न बनने से ना रोके लेकिन पहनावे को भी बदलने की जरूरत नहीं है।
    पर कर ही क्या सकते हैं जब tv पर धार्मिक नाटक में भी दैवीय स्वरूप ही जब अधनग्न दिखाया जाने लगे और कोई आवाज तक ना उठे।
    खैर... मैंने लिखा था कहीं कि " बदलाव बन न पाए..."
    जागृति फैलाकर ताकि अंधी दौड़ का हिस्सा बनने से बच जाएं हम एक ठहराव ला सकते हैं।
    उम्दा रचना। कवियत्री होने का सम्पूर्ण दायित्व निभाया है आपने।
    प्रश्नवाचक चिह्न में एक चिंता भी और कोने में बैठा डर भी मुस्कुरा रहा है।

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  9. सच में आज शिक्षित बेटियों के संस्कार कहीं खोते जा रहे हैं | वे घर का काम करना नहीं चाहती , छोटे कपडे पहनने को आधुनिकता मान रही हैं | बड़ों के साथ सामजस्य बिठाना नहीं चाहती | रोहितास जी ने सच कहा , पढ़े लिखे लोग तो तख्तियां लेकर सड़कों पर आ जाते हैं किअपनी नजर बदलो , पर क्या अर्धनग्न रहना ही आधुनिकता है ? इस अंधी दौड़ में हमारी बेटियाँ ना जाने किस पथ का अनुशरण कर रही हैं? मेरी कॉलेज जाने वाली बेटी बताती है कि सूट पहनने पर आंटी या बहनजी बुलाया जाता है और लड़कियां लड़कों से ज्यादा गालियां देती हैं और यदा कदा छोटी मोटी पार्टियाँ कर शराब तक का सेवन करती हैं तो मैं भी डर सी जाती हूँ और उसे समझाने का प्रयास करती हूँ | मेरा डर है कि कहीं मेरी बिटिया भी इन सबको आधुनिकता समझ अपना ना बैठे | यही डर आज हर माता - पिता का है | आज भटकती हुई इन बेटियों को बहुत सँभालने की जरूरत है ताकि शिक्षा के साथ सुसंस्कारों से सजी बेटियाँ अपना जीवन सहजता से जीती हुई | समाज और परिवार के दायित्वों को बेहतर ढंग से निभा सकें | सार्थक रचना प्रिय श्वेता |

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  10. प्रिय श्वेता, आपकी यह रचना उस चिंता को रेखांकित करती है जो सिर्फ लड़कियों के माता पिता की नहीं, सारे समाज की हैं। अभिव्यक्ति को सशक्त करती हुई ये व्यंग्यात्मक पंक्तियाँ तीखी चोट करती हैं -
    लड़कों के बराबरी की
    होड़ में दिशाहीन
    आधा तीतर आधा बटेर हुई !!!

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  11. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (23-10-2019) को    "आम भी खास होता है"   (चर्चा अंक-3497)     पर भी होगी। 
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  12. अपने भावों को आपके शब्दों में देख यथार्थ की कठोर ज़मीं पर चलने का साहस करती ये कृति विचार मंथन को उकसाती है ।
    साहसिक कदम ।
    साधुवाद।
    बाकी आपने सब कह दिया।
    सराहनीय रचना।

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  13. वर्तमान समय की स्थिति को उजागर करती और समाज को सचेत करती रचना
    बधाई

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  14. गहन चिन्तन के साथ बेहतरीन और लाजवाब सृजन ।

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  15. आधा तीतर आधा बटेर हुई
    बेटियों को देखकर
    सोचती हूँ
    आख़िर हम अपने
    किस अधिकार की
    लड़ाई की बात करते हैं?

    गहन चिंतन का विषय है. न जाने कैसी होड़ है. लाजवाब रचना

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  16. शत प्रतिशत सही कहा है आपने

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  17. पुरूष के पदचिन्हों पर चल रही नारी क्या दूसरा पुरुष होकर ही अपने अधिकार पा सकेगी।क्या स्वछन्द आचरण ही वास्तविक आजादी है?इसी प्रश्न को सशक्त ढंग से उठाती है सार्थक रचना 'अधिकार की परिभाषा '

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।