Pages

Friday, 16 August 2019

इच्छा


आसान कुछ भी कहाँ होता है
मनमुताबिक थोड़ी जहां होता है
मात्र "इच्छा"करना ही आसान है 
इच्छाओं की गाँठ से मन बंधा होता है 

आसान नहीं होता प्रेम निभा पाना
प्रेम में डूबा मन डिगा पाना
इच्छित ख़्वाबों की ताबीर हो न हो
रंग तस्वीरों का अलहदा होता है

आसान होता है करना मृत्यु की इच्छा
और मृत्यु की आस में जीने की उपेक्षा
अप्राप्य इच्छाओं की तृष्णा से विरक्त
जीवन वितृष्णाओं से भुरभुरा होता है

हाँ,इच्छाओं को बोना आसान होता है
इच्छा मन का स्थायी मेहमान होता है
ज़मी पर भावनाओं की पर्याप्त नमी से
इच्छाओं का अंकुरण सदा होता है।

#श्वेता सिन्हा

Wednesday, 14 August 2019

तो क्या आज़ादी बुरी होती है?


तुम बेबाकी से 
कहीं भी कुछ भी 
कह जाते हो
बात-बात पर
क्षोभ और आक्रोश में भर
वक्तव्यों में अभद्रता की
सीमाओं का उल्लंघन करते
अभिव्यक्ति की आज़ादी
के नाम पर 
अमर्यादित बेतुकी बातों को 
जाएज़ बताते हो
किसी का सम्मान 
पल में रौंदकर 
सीना फुलाते हो
तुम आज़ाद हो,
तो क्या आज़ादी बहुत बुरी होती है?
इंसान को इंसान की बेक़द्री और
अपमान करना सिखलाती है?

अपने-अपने
धर्म और जाति का गुणगान करते
एक-दूसरे की पगड़ी तार-तार करते
अगड़ा-पिछड़ा तू-तू-मैं-मैं में
बँटे समाज की जड़ों में
नित नियम से खाद भरते
अपने धर्म की पताका
आज़ाद हवा में
सबसे ऊँची फहराने के जोश में
किसी भी हद तक गुज़रते
तुम पावन तिरंगे का 
कितना सम्मान करते हो?
ज़रा-ज़रा सी बात पर
एक-दूसरे का अस्तित्व 
लहुलुहानकर,ज़ख़्मों पर
 नमक रगड़ते नहीं लजाते हो
 तुम आज़ाद हो,
तो क्या आज़ादी बहुत बुरी होती है?
आज़ादी सांम्प्रदायिक होकर
नफ़रत और वैमनस्यता बढ़ाती है?

आज़ादी क्या सच में बहुत बुरी होती है?
इंसान को उकसाती है
ख़त्मकर भय,बेशर्म बनाती है
आज़ादी का सही अर्थ भुलाकर 
आज़ादी पर शर्मिंदा होने वालों को
औपचारिक रोने वालों को
सारे अधिकार कंठस्थ याद करवा
उनके कर्तव्यों की सूची मिटाती है
आज़ादी क्या सच में बुरी होती है?
आज़ादी की हवा ज़हरीली होती है?
घुटनभरी साँसों में छटपटाते,
उम्मीदभरी आँखों में
सुखद स्वप्न नहीं पनपते,
आज़ादी से असंतोष,दुःख,
खिन्नता,क्षोभ के
कैक्टस जन्मते है?

#श्वेता सिन्हा

Tuesday, 13 August 2019

देशभक्त.... आज़ादी(१)


आज़ाद देश के,
जिम्मेदार बुद्धिजीवी
बहुत शर्मिंदा हैं,
देश की बदहाल हवा में,
दिन-ब-दिन विषाक्त होता
पानी पीकर भी 
अफ़सोस ज़िंदा हैं।
आज़ादी की वर्षगांठ पर
विश्लेषण का भारी पिटारा लादे
गली-चौराहों,
नुक्कड़ की पान-दुकानों पर,
अरे नहीं भाई! अब ट्रेड बदल गया है न....
कुछ पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी देशभक्त
अलग-अलग खेमों के प्रचारक 
देश की चिंता में दुबलाते 
क़लम की नोंक से
कब्र खोद-खोदकर 
सोशल मीडिया पर
आज़ाद भारत के दुखित,पीड़ित,दलित
विवादित,संक्रमित विषयों का 
मुर्दा इतिहास,जीवित मुर्दों के
वर्तमान और भविष्य की स्थिति का 
मार्मिक अवलोकन करते
समाज,देश और स्त्रियों की दशा,
दुर्दशा पर चिंतित 
दार्शनिक उद्गार व्यक्त करके
भयावह,दयनीय शब्दों के रेखाचित्र की
प्रदर्शनी लगाकर वाहवाही के 
रेज़गारी बटोरकर आहृलादित होते
सोशल मंच पर उपस्थिति के
दायित्वों का टोकरा खाली करते हैं।
आज़ादी से हासिल 
शून्य उपलब्धियों का डेटा 
अपडेट करते
आज़ाद देश में रहने वाले भयभीत 
असहिष्णुओं का मनोवैज्ञानिक
पोस्टमार्टम करते,
सच-झूठ के धागे और उलझाकर
तर्क-कुतर्क का ज्ञान बघारते
ख़ुद ही न्यायाधीश बने 
किसी को भी मुज़रिम ठहरा 
सही-गलत का फैसला 
गर्व से सुनाते है
देश के नाम का शृंगार कर
देश की माटी में विहार कर
इसी से उपजा अन्न खाकर
चैन की बाँसुरी बजाकर
देश के बहादुर रक्षकों की 
छत्रछाया में सुरक्षित,
देश की आज़ादी की हर वर्षगांठ पर
देश को कोसने वाले 
छाती पीटकर रोने वाले
हमारे देश के 
सोशल बुद्धिजीवी ही तो
सच्चे देशभक्त हैं।

#श्वेता सिन्हा