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Sunday, 26 April 2020

जलते चूल्हे


भूख के एहसास पर
आदिम युग से
सभ्यताओं के पनपने के पूर्व
अनवरत,अविराम
जलते चूल्हे...
जिस पर खदकता रहता हैं
अतृप्त पेट के लिए
आशाओं और सपनों का भात, 
जलते चूल्हों के
आश्वासन पर 
निश्चित किये जाते हैं
वर्तमान और भविष्य की
परोसी थाली के निवाले
 उठते धुएँ से जलती
पनियायी आँखों से
टपकती हैं 
 मजबूरियाँ
कभी छलकती हैं खुशियाँ,
धुएँ की गंध में छिपी होती हैं
सुख-दुःख की कहानियाँ
जलती आग के नीचे
सुलगते अंगारों में
लिखे होते हैं 
आँँसू और मुस्कान के हिसाब
बुझी आग की राख में
उड़ती हैंं
पीढ़ियों की लोक-कथाएँ
बुझे चूल्हे बहुत रूलाते हैं
स्मरण करवाते हैं
जीवन का सत्य 
कि यही तो होते हैं 
मनुष्य के
 जन्म से मृत्यु तक की 
यात्रा के प्रत्यक्ष साक्षी।

#श्वेता सिन्हा
२६अप्रैल२०२०
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13 comments:

  1. वाह! बेहतरीन सृजन स्वेता ।बहुत सुंदर।

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  2. वाह ! खूबसूरत प्रस्तुति आदरणीया ! बहुत सुंदर ।

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  3. https://khooshiya.blogspot.com/2020/04/parivar-me-dosti.html?m=1

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  4. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 27 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  5. बहुत खूब प्रिय श्वेता , चूल्हा ही मानव की सभ्यता और संस्कृति का मूक साक्षी बन उसके हमकदम चलता है। इसकी धधकती अग्नि उल्लास और समृद्धि की परिचायक है तो चूल्हे का बुझने से उपजा रुदन मानवता का शोकगीत है । भगवान न करे किसी को इसे गाना पड़े। चूल्हे पर आदिम सभ्यता से आज तक का वृहद चिंतन और दर्शन । हार्दिक शुभकामनायें भावपूर्ण रचना के लिए ।

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  6. बहुत अच्छा लिखा दी.. जिस घर में सुबह होते ही चूल्हे में जलती लकड़ियों की सोंधी खुशबू आती है मानो वहाँ ऐसा महसूस होता है कि भूख को मात देने के लिए पूरा परिवार एकजुट है पूरी मानव जीवन के अतीत से लेकर आज के वर्तमान तक का सफर बिना चूल्हे के संभव कभी नहीं रहा है चूल्हा सभ्यता की जीवंत होने की कहानी बयां करता है..!
    बहुत ही गहन चिंतन आपकी इस रचना में आप ने बखूबी प्रस्तुत की है
    एक चूल्हे के आसपास जिंदगी कैसे खुशनुमा गुजरती है उस सब का बहुत ही अच्छा खासा आपने अपनी सूचना में प्रस्तुत किया है यूं ही लिखते रहिएगा बहुत-बहुत बधाई आपको

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  7. जलती आग के नीचे
    सुलगते अंगारों में
    लिखे होते हैं
    आँँसू और मुस्कान के हिसाब ...
    नायाब बिम्बों से सजा लोगबाग की मूलभूत भौतिक आवश्यकताओं और संवेदनाओं का शब्द-चित्रण ...

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  8. वाह!!श्वेता ,बेहतरीन !!
    बुझे चूल्हे बहुत रुलाते हैं ,चूल्हे तो जलते ही भले ..।

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  9. अप्रतिम रचना। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया श्वेता जी।

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  10. चूल्हे के माध्यम से जीवन के सत्य का सुंदर विवेचन किया हैं आपने, श्वेता दी।

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  11. चूल्हे को माध्यम बना के जीवन के रहस्य को बाखूबी लिख है श्वेता जी ...
    जिंदगी इसी को कहते हैं ...

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  12. हर युग का सत्य है ये जलता हुआ चूल्हा। शानदार लेखन मित्र। बहुत उम्दा

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  13. चूल्हा-चक्की सामाजिक जीवन के साथ ऐसे जुड़े कि अब तक साथ निभा रहे हैं भले ही इनका स्वरुप बदल गया है / आधुनिकतम हो गया है। भारतीय समाज में सामाजिक ढाँचे के अनुसार कहीं चूल्हे अपने वैभव पर इतराते हैं तो कहीं अभावों की वेदना के गीत गाते नज़र आते हैं। रचना में भावों पर वैचारिकता हावी होती प्रतीत हो रही है। यथार्थवादी चिंतन की विचारशील अभिव्यक्ति।


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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।