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Friday, 22 May 2020

परिपक्वता


किसी 
अदृश्य मादक सुगंध
की भाँति
प्रेम ढक लेता है
चैतन्यता,
मन की शिराओं से
उलझता प्रेम
आदि में 
अपने होने के मर्म में
"सर्वस्व" 
और सबसे अंत में 
"कुछ भी नहीं"
 होने का विराम है।

कदाचित्
सर्वस्व से विराम के
मध्य का तत्व
जीवन से निस्तार
का संपूर्ण शोध हो...
किंतु 
प्रकृति के रहस्यों का
सूक्ष्म अन्वेषण,
"आत्मबोध"
विरक्ति का मार्ग है
गात्रधर सासांरिकता
त्याज्य करने से प्राप्त।

प्रेम असह्य दुःख है! 
तो क्या "आत्मबोध"
व्रणमुक्त
संपूर्ण आनंद है?
गुत्थियों को
सुलझाने में
आत्ममंथन की
अनवरत यात्रा
जो प्रेम की
निश्छलता के
बलिदान पर
ज्ञान की
परिपक्वता है।

©श्वेता सिन्हा

Tuesday, 19 May 2020

क्या विशेष हो तुम?


ये तो सच है न!!
तुम
कोई वीर सैनिक नहीं,
जिनकी मृत्यु पर
 देश
गर्वित हो सके।

न ही कोई 
प्रतापी नेता
जिनकी मौत 
 के मातम में
 झंडे झुकाकर
 राष्ट्रीय शोक
 घोषित कर
 दिया जाए। 
 योगदान,त्याग
और बलिदान के
 प्रशस्ति-पत्र पढ़े जायें।

न ही कोई
अभिनेता
जिसकी मौत पर
 बिलखते,छाती पीटते
 प्रशंसकों द्वारा
धक्का-मुक्की कर
श्रद्धापुष्प अर्पित किये जाये,
उल्लेखनीय
जीवन-गाथाओं
की वंदना की जाए।

न ही तुम किसी
धर्म के ठेकेदार हो,
न धनाढ्य व्यापारी,
जिसकी मौत पर
आयोजित
 शोक सभाओं से
 किसी प्रकार का कोई
 लाभ मिल सके।

 कहो न!!
 क्या विशेष हो तुम?
 जिसकी गुमनाम  मौत पर
 क्रांति गीत गाया जाए?
 शोक मनाया जाए?
महामारी के दौर की
 एक चर्चित भीड़!
 सबसे बड़ी ख़बर,
 जिनके अंतहीन दुःख 
अब रोमांचक कहानियाँ हैं..?
जिनकी देह की
बदबू से बेहाल तंत्र
नाक-मुँह ढककर 
उपेक्षा की चादर लिए
राज्य की सीमाओं पर
प्रतीक्षारत है...
 संवेदना और सहानुभूति के
 मगरमच्छी आँसू और
हवाई श्रद्धांजलि 
पर्याप्त नहीं क्या?

 मौलिक अधिकारों के
 संवैधानिक प्रलाप से
 छले जानेवाले
ओ मूर्ख!!
तुम लोकतंत्र का 
मात्र एक वोट हो
और..
डकार मारती
तोंदियल व्यवस्थाओं के
लत-मर्दन से
मूर्छित
बेबस"भूख"

©श्वेता सिन्हा
१९मई२०२०

Monday, 18 May 2020

साँझ


पेड़ की फुनगी में
दिनभर लुका-छिपी 
खेलकर थका,
डालियों से
हौले से फिसलकर
तने की गोद में
लेटते ही
सो जाता है,
उनींदा,अलसाया 
सूरज।

पीपल की 
पत्तियाँ फटकती हैं
दिनभर धूप,
साँझ को समेटकर 
रख देती है,
तने की आड़ में
औंधा।

दिनभर
फुदकती है
चिरैय्या
गुलाबी किरणें 
चोंच में दबाये
साँझ की आहट पा
छिपा देती हैं,
अपने घोंसलों में,
तिनकों के
रहस्यमयी
संसार में।

#श्वेता सिन्हा
१८मार्च२०२०

Sunday, 17 May 2020

ध्वंसावशेष


उनके तलुओं में
देश के गौरवशाली
मानचित्र की
गहरी दरारें 
उभर आयी हैं।

छाले,पीव,मवाद,
पके घावों,स्वेद-रक्त की 
धार से गीली
चारकोल के
बेजान राजमार्गों से
उठती,
आह और बेबसी की भाप
मृत इंसानियत की
हड्डियाँ गला रही है।

ओ धर्म के ठेकेदारों!
कहां हो?
मज़हब के नाम पर
रह-रहकर उबलने वालों
खून तुम्हारा पानी हो गया?
अब क्यों नहीं लड़ते
मानवता के नाम पर
इन अनाम भीड़ से
अपने धर्म--जाति के
निरीह बेबस
चेहरों को क्यों नहीं चुनते ? 

राहत के आँकड़ों
की अबूझ पहेलियाँ 
सियासी दानवीरों की
चमत्कृत घोषणाएँ
ट्रेनों-बसों की लंबी कतारें
तू-तू,मैं-मैं,
ख़ोखली बयानबाज़ी
जन प्रतिनिधियों के
संजीवनी मंत्र का जाप
ठठरियों के 
दिव्य कवच से
टकराकर चूर हो रहे है!!

देश का
गर्वित लोकतंत्र,
शहरी वैभव के
कूड़ेदान,नाबदान
और पीकदान को
साफ़ करने वालों के
चिथड़ों का बोझ
वहन करने में असमर्थ 
क्यों है?
जिनके स्वेद से
गूँथे आटे से
निवाले सोने के हो जाते हैं 
उनकी थाली में
विपन्नता का हास और
आँसुओं का भोग क्यों है?

क्या लिखूँ,कैसे लिखूँ,
कितना लिखूँ 
असहनीय व्यथाओं,
अव्यक्त वेदना का गान
सुनो ओ!
दहकते सूरज,
झुलसाती हवाओं
मेरे लाचार,बेबस
घर वापस लौटते
भाई-बंधुओं से कहो 
न भ्रमित होना 
चकाचौंध से
न लौटकर तुम आना
तुम्हारे गाँव की मिट्टी 
सहज स्वीकार करेगी
तुम्हारे अस्तित्व का
 ध्वंसावशेष।

©श्वेता सिन्हा