चमड़ी के रंग के लिए
निर्धारित मापदंड का
शाब्दिक विरोधी
निर्धारित मापदंड का
शाब्दिक विरोधी
हैंं हम भी शायद...?
आँखों के नाखून से
चमड़ी खुरचने के बाद
बहती चिपचिपी नदी का
रंग श्वेत है या अश्वेत...?
नस्लों के आधार पर
मनुष्य की परिभाषा
तय करते श्रेष्ठता के
खोखले आवरण में बंद
घोंघों को
अपनी आत्मा की प्रतिध्वनि
भ्रामक लगती होगी...।
अपनी आत्मा की प्रतिध्वनि
भ्रामक लगती होगी...।
सारे लिज़लिज़े भाव जोड़कर
शब्दों की टूटी बैसाखी से
त्वचा के रंग का विश्लेषण
वैचारिकी अपंगता है या
निर्धारित मापदंड के
संक्रमण से उत्पन्न
मनुष्यों में पशुता से भी
निम्नतर,पूर्वाग्रह के
विकसित लक्षण वाले
असाध्य रोग ?
पृथ्वी के आकार के
ग्लोब में खींची
रंग-बिरंगी, टेढ़ी-मेढ़ी
असमान रेखाओं के
द्वारा निर्मित
विश्व के मानचित्र सहज
स्वीकारते मनुष्य का
पर्यावरण एवं जलवायु
के आधार पर उत्पन्न
चमड़ी के रंग पर
नासमझी से मुँह फेरना
वैचारिक एवं व्यवहारिक
क्षुद्रता का
ग्लोबलाइजेशन है शायद...।
#श्वेता सिन्हा
११ जनवरी २०२१
व्वाहहह...
ReplyDeleteवास्तविक हकीकत
सादर
वाह
ReplyDeleteपृथ्वी के आकार के
ReplyDeleteग्लोब में खींची
रंग-बिरंगी, टेढ़ी-मेढ़ी
असमान रेखाओं के
द्वारा निर्मित
विश्व के मानचित्र सहज
स्वीकारते मनुष्य का
पर्यावरण एवं जलवायु
के आधार पर उत्पन्न
चमड़ी के रंग पर
नासमझी से मुँह फेरना
वैचारिक एवं व्यवहारिक
क्षुद्रता का
ग्लोबलाइजेशन है शायद...।
..बहुत ही गम्भीर विषय को आपने शब्दों में पिरोया है..बहुत बढ़िया श्वेता जी..आपको हार्दिक शुभकामनाएँ...
रचना के बिम्ब गहरे हैं.. बस! स्वयं हेतु उलझनें अवसाद के आधार ना बन सकें
ReplyDeleteउम्दा रचना
नस्लों के आधार पर
ReplyDeleteमनुष्य की परिभाषा
तय करते श्रेष्ठता के
खोखले आवरण में बंद
घोंघों को
अपनी आत्मा की प्रतिध्वनि
भ्रामक लगती होगी...।
सही कहा आपने नस्ल के आधार पर मनुष्य की परिभाषा.... श्वेत अश्वेत का फर्क वैचारिक एवं व्यवहारिक क्षुद्रता का ग्लोबलाइजेशन है
बहुत सटीक...
लाजवाब सृजन।
वाह बेहतरीन रचना श्वेता जी
ReplyDelete"क्षुद्रता का ग्लोबलाइजेशन"...
ReplyDeleteअच्छा कटाक्ष किया है आपने 🌹🙏🌹
वाह श्वेता जी, चमड़ी के रंग पर
ReplyDeleteनासमझी से मुँह फेरना
वैचारिक एवं व्यवहारिक
क्षुद्रता का...नस्लभेद और सोच का भेद बताती रचना ...
बहुत बेहतरीन रचना आप ने बहुत ही गहरी बात लिखी है बहुत ख़ूब,
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteउत्कृष्ट।
सारे लिज़लिज़े भाव जोड़कर
ReplyDeleteशब्दों की टूटी बैसाखी से
त्वचा के रंग का विश्लेषण
वैचारिकी अपंगता है या
निर्धारित मापदंड के
संक्रमण से उत्पन्न
मनुष्यों में पशुता से भी
निम्नतर,पूर्वाग्रह के
विकसित लक्षण वाले
असाध्य रोग ?
गहनता में डूबी, विचार करने को विवश करती रचना।
अद्भुत।
प्रिय श्वेता, चमड़ी के रंग भेद पर कितना चिंतन हुआ, कितने कानून बने पर आँखों से लेकर आत्मा तक व्याप्त इस विकार का कोई सही समाधान नहीं मिल पाया। ये सोच का कर्क रोग है जो कई मायनों में असाध्य है। गहरे चिंतन से उपजे सृजन के लिए शुभकामनाएं और आभार
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर श्लाघनीय
ReplyDeleteठीक कहा जिज्ञासा जी आपने । यह वैचारिक एवं व्यावहारिक क्षुद्रता का वैश्वीकरण ही है ।
ReplyDeleteचमड़ी के रंग..और संग ये रंगभेद..
ReplyDeleteमन ना करता भेद जो..बच जाते कितने विच्छेद..
सोच अगर जो उजली होती..रहता क्योंकर खेद
दुनिया छोटी छोटी रह जाती है तो..ये जो थोड़ा सा भेद!!