खौलते शब्दों के छींटे
देह पर गिरते ही
भाप बनकर
मन में समा जाते हैं...
असहनीय वेदना से
छटपटाता,व्याकुल
भीतर ही भीतर सीझता मन
मरहम के फाहे के लिए
उन्हीं शब्दों के
ठंडा होने की
प्रतीक्षा करता है।
जलते शब्दों के अमिट निशान
चिपक जाते हैं उम्रभर के लिए
मन के अदृश्य सतह पर
अनुपयोगी
बर्थमार्क की तरह,
जिसे खुरचकर हटाया नहीं
नहीं जा सकता आजीवन
पर वक़्त के साथ
देह पर पनपे अनचाहे, अन्य
निशानों की तरह ही
स्वीकार कर लिया जाता है।
मछलियों की तरह
शब्दों के लहरों में तैरता 'मन'
भावनाओं को स्पर्श
करने के क्रम में
खिंचता चला जाता है अवश
भँवर की अतल गहराईयों में
पर...
मन के सारे रंग
निचोड़कर फेंक देता है भँवर
निर्जीव-सी देह को,
जो हल्की होकर बहने लगती है
धाराओं के अनुकूल,
संसार की नदी में
कठोर पत्थरों और
रेतीले किनारों से रगड़ाती हुई
अस्तित्व के विलुप्त होने तक,
उस भँवर की मरीचिका में
मन भटकता रहता है,
उलझता रहता है
तृप्ति -अतृप्ति की
अंतहीन यात्राओं में...।
-श्वेता सिन्हा
१५ मई २०२२
आपकी इस रचना के धाराओं के संग मेरा भी मन हल्का होकर बह गया।
ReplyDeleteसच में बहुत बढिया रचना है।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteखौलते शब्द की वेदना ठंडे शब्द होने पर भी कहाँ खत्म हो पाती है । और वैसे भी मरहम के फाये लगाने के लिए शब्दों का स्वरूप बदल जाता है ।बर्थमार्क से उपमा कितनी सटीक है । खुरचने पर भी नहीं छूटता निशान ।
ReplyDeleteमन न जाने किस भँवर में डूबता उतराता ,तृप्त - अतृप्त की भावनाओं में घूमता रहता है ।
कभी कभी कोई बात सच ही ऐसा महसूस करवा देती है ।
वाह!
ReplyDeleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteखौलते शब्दों के छींटे
ReplyDeleteदेह पर गिरते ही
भाप बनकर
मन में समा जाते हैं...
उव्वाहहहहहहहह
सादर...
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर सोमवार 16 मई 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार 16 मई 2022 को 'बुद्धम् शरणम् आइए, पकड़ बुद्धि की डोर' (चर्चा अंक 4432) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
प्रिय श्वेता, कटु शब्दों के प्रचंड प्रहार की पीड़ा किसी भी अन्य आघात से कहीं भीषण होती है। अनूठे बिम्ब विधान में पिरोकर बहुत ही कुशलता से शब्दों में समेटा है तुमने।वाणी की चोट की वेदना पर शायद कोई मरहम पर्याप्त नहीं।अत्यंत सराहनीय काव्य कौशल में बंधी अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteजलते शब्दों के अमिट निशान
ReplyDeleteचिपक जाते हैं उम्रभर के लिए
मन के अदृश्य सतह पर
अनुपयोगी
बर्थमार्क की तरह,
जिसे खुरचकर हटाया नहीं
नहीं जा सकता आजीवन
पर वक़्त के साथ
देह पर पनपे अनचाहे, अन्य
निशानों की तरह ही
स्वीकार कर लिया जाता है।
👌👌👌👌👌👌🌺🌺♥️🌺
ठंडा होने की प्रतीक्षा करने से बेहतर है कठोर शब्दों के आगे दीवार खड़ी कर देना... बुद्ध होना कठिन नहीं है
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ
मन भटकता रहता है,
ReplyDeleteउलझता रहता है
तृप्ति -अतृप्ति की
अंतहीन यात्राओं में...।
सादर
बहुत बहुत बहुत....सुंदर रचना कि मछलियों की तरह
ReplyDeleteशब्दों के लहरों में तैरता 'मन'
भावनाओं को स्पर्श
करने के क्रम में
खिंचता चला जाता है अवश
भँवर की अतल गहराईयों में...बहुत खूब लिखा श्वेता जी
दिनांक ----17 मई
ReplyDelete
ReplyDeleteमन के सारे रंग
निचोड़कर फेंक देता है भँवर
निर्जीव-सी देह को,
जो हल्की होकर बहने लगती है
धाराओं के अनुकूल,
संसार की नदी में
कठोर पत्थरों और
रेतीले किनारों से रगड़ाती हुई
अस्तित्व के विलुप्त होने तक,
उस भँवर की मरीचिका में
मन भटकता रहता है,
उलझता रहता है
तृप्ति -अतृप्ति की
अंतहीन यात्राओं में...बहुत बढ़िया कहा श्वेता दी । हर शब्द अंतस में उतरता बहुत गहरे भाव।
सादर
खौलते शब्दों के छींटे
ReplyDeleteदेह पर गिरते ही
भाप बनकर
मन में समा जाते हैं...
ये शब्द ही तो होते है जो दर्द भी देते और कभी दवा भी बनते हैं,मगर विभा दी ने सही कहा- "कठोर शब्दों के आगे दीवार खड़ी कर दो" उन्हें इजाजत ही नहीं दो खुद को भेदने की, बेहद मार्मिक सृजन,सादर नमस्कार श्वेता जी 🙏
जिन शब्दों में हम प्राण भरते हैं वे ही हमारे लिए प्राणघातक क्यों हो जाते हैं? स्पष्टत: हम आखिर इतने नरम/कमजोर जो हैं। स्वयं को पहचानो और शब्दों के पार हो जाओ। अप्प दीपो भव का यह भी एक अर्थ है।
ReplyDeleteसंसार की नदी में
ReplyDeleteकठोर पत्थरों और
रेतीले किनारों से रगड़ाती हुई
अस्तित्व के विलुप्त होने तक,
उस भँवर की मरीचिका में
मन भटकता रहता है,
उलझता रहता है
तृप्ति -अतृप्ति की
अंतहीन यात्राओं में...।
वाकई बहुत ही सुंदर और सार्थक रचना लिखी है आपने श्वेता जी ।
Your poem brings forth the rawness of the wound.
ReplyDelete"Stick and stones may break my bones, but words will never break me" is what the wise advise.
शब्द ही बुद्ध, शब्द ही युद्ध !
ReplyDeleteअत्यंत प्रभावशाली शब्दों में आपने शब्दों का सामर्थ्य हम तक पहुँचाया है प्रिय श्वेता।
सच शब्द का सामर्थ्य की कोई सीमा नहीं
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना
बहुत बढ़िया रचना !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना👌👌
ReplyDeleteजलते शब्दों के अमिट निशान
ReplyDeleteचिपक जाते हैं उम्रभर के लिए
मन के अदृश्य सतह पर
अनुपयोगी
बर्थमार्क की तरह,
जिसे खुरचकर हटाया नहीं
नहीं जा सकता आजीवन
शब्दों की चोट से छलनी हुआ मन उम्र भर दुखता है । ये वेदना मिलती भी अपनों से है तो मलहम की उम्मीद भी लगी रहती है पर ऐसे लोग सिर्फ प्रहार जानते हैं...
इस अदृश चोट को खौलते शब्द की जलन और बर्थमार्क जैसे बिम्बों में साकार कर दिया आपने...
बहुत ही लाजवाब ।
जीवन के अनुभवों से उपजा गहन दर्शन, मन पर लग घावों को यदि साक्षी भाव से कोई देखना सीख जाये तो उनसे मुक्त भी हो सकता है, बुद्ध की विपासना यही तो सिखाती है
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