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Wednesday, 26 March 2025

बे-मुरव्वत है ज़िंदगी


 बे-आवाज़ ला-इलाज उम्रभर मर्ज़ देती है।
बे-मुरव्वत है ज़िंदगी बे-इंतहा दर्द देती है।


जम जाते हैं अश्क आँख के मुहाने पर;

मोहब्बत की बे-रुख़ी मौसम सर्द देती है।


 ख़्वाब इश्क़ के जब भी देखना चाहो

 दिल को धप्पा, दुनिया कम-ज़र्फ़ देती है।


सीले मन के आहातों में अंधेरा कर;

बे-वफ़ाई मोहब्बत का रंग ज़र्द देती है।


ढूँढ़ते फिर रहे ज़माने भर में मरहम;

ये आशिक़ी है, बस झूठा हमदर्द देती है।


-श्वेता

२६ मार्च२०२५

 

10 comments:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 27 मार्च 2025 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  2. ख़्वाब इश्क़ के
    जब भी देखना चाहो
    दिल को धप्पा,
    दुनिया कमज़र्फ देती है।
    सुंदर अश़आर
    वंदन

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  3. दिल की गहराइयों से निकले सुंदर अल्फ़ाज़, ज़िंदगी तभी तक दर्द देती है जब तक कोई उससे ख़ुशी की माँग करे

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  4. वाह !
    बहुत खूब!
    लाज़वाब अश़आरों से गुँथीं नायाब ग़ज़ल ।

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  5. उफ्फ! गहन वेदना का सरगम!

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  6. सच बताऊं, “बे-आवाज़ ला-इलाज उम्रभर मर्ज़ देती है” पढ़ते ही तो एक अजीब सी चुप्पी छा गई मन में। मोहब्बत की जो बेरुखी तुमने बयाँ की है न, वो तो जैसे सबने कभी न कभी महसूस की होती है, बस हिम्मत नहीं होती उसे शब्दों में ढालने की। और तुमने वो भी कर दिखाया बड़े ही सलीके से। ये अशआर सिर्फ अल्फाज़ नहीं, ये वो अधूरी कहानियाँ हैं जो हम दिल में दबा के रखते हैं।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।