मन के पाखी
*हिंदी कविता* अंतर्मन के उद्वेलित विचारों का भावांकन। ©श्वेता सिन्हा
Pages
(Move to ...)
Home
प्रकृति की कविताएं
दार्शनिकता
छंदयुक्त कविताएँ
प्रेम कविताएँ
स्त्री विमर्श
सामाजिक कविता
▼
Saturday, 30 May 2020
अबके बरस
›
ताखा पर बरसों से जोड़-जोड़कर रखा अधनींदी और स्थगित इच्छाओं से भरा गुल्लक मुँह चिढ़ा रहा है अबके बरस भी...। खेत से पेट...
15 comments:
Friday, 29 May 2020
छलावा
›
अपनी छोटी-छोटी जरुरतों के लिए हथेली पसारे ख़ुद में सिकुड़ी, बेबस स्त्रियों को जब भी देखती थी सोचती थी... आर्थिक रूप से...
12 comments:
Tuesday, 26 May 2020
व्याकुल मीन
›
रूठे-रूठे न रहो प्रिय, अंतर्मन अकुलाता है। मौन अबूझ संकेतों की, भाषा पढ़-पढ़ बौराता है। प्रश्नों की खींचातानी से मितवा आँखें...
18 comments:
Friday, 22 May 2020
परिपक्वता
›
किसी अदृश्य मादक सुगंध की भाँति प्रेम ढक लेता है चैतन्यता, मन की शिराओं से उलझता प्रेम आदि में अपने होने के मर्म में "...
9 comments:
Tuesday, 19 May 2020
क्या विशेष हो तुम?
›
ये तो सच है न!! तुम कोई वीर सैनिक नहीं, जिनकी मृत्यु पर देश गर्वित हो सके। न ही कोई प्रतापी नेता जिनकी मौत क...
19 comments:
Monday, 18 May 2020
साँझ
›
पेड़ की फुनगी में दिनभर लुका-छिपी खेलकर थका, डालियों से हौले से फिसलकर तने की गोद में लेटते ही सो जाता है, उनींदा,अलसा...
25 comments:
Sunday, 17 May 2020
ध्वंसावशेष
›
उनके तलुओं में देश के गौरवशाली मानचित्र की गहरी दरारें उभर आयी हैं। छाले,पीव,मवाद, पके घावों,स्वेद-रक्त की धार से गी...
22 comments:
Wednesday, 13 May 2020
भीड़ के हक़...
›
भीड़ के हक़ में दूरी है। हर तफ़तीश अधूरी है।। बँटा ज़माना खेमों में, जीना मानो मजबूरी है। फल उसूल के एक नहीं, आदत हो गयी लंग...
33 comments:
‹
›
Home
View web version