मन के पाखी
*हिंदी कविता* अंतर्मन के उद्वेलित विचारों का भावांकन। ©श्वेता सिन्हा
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Wednesday, 10 June 2020
क्या तुम नहीं डरते?
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सुनो ओ!जंगल के दावेदारों विकास के नाम पर लालच और स्वार्थ की कुल्हाड़ी लिए तुम्हारी जड़ को धीरे-धीरे बंजर करते, तुम्हारी आँखों...
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Tuesday, 2 June 2020
दस्तक...
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नन्हें जुगनुओं को स्याह दुपट्टे के किनारों में गूँथती रात शाम से ही करती पहरेदारी नभ के माथे पर लगाकर दमकते चाँद का र...
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Saturday, 30 May 2020
अबके बरस
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ताखा पर बरसों से जोड़-जोड़कर रखा अधनींदी और स्थगित इच्छाओं से भरा गुल्लक मुँह चिढ़ा रहा है अबके बरस भी...। खेत से पेट...
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Friday, 29 May 2020
छलावा
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अपनी छोटी-छोटी जरुरतों के लिए हथेली पसारे ख़ुद में सिकुड़ी, बेबस स्त्रियों को जब भी देखती थी सोचती थी... आर्थिक रूप से...
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Tuesday, 26 May 2020
व्याकुल मीन
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रूठे-रूठे न रहो प्रिय, अंतर्मन अकुलाता है। मौन अबूझ संकेतों की, भाषा पढ़-पढ़ बौराता है। प्रश्नों की खींचातानी से मितवा आँखें...
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Friday, 22 May 2020
परिपक्वता
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किसी अदृश्य मादक सुगंध की भाँति प्रेम ढक लेता है चैतन्यता, मन की शिराओं से उलझता प्रेम आदि में अपने होने के मर्म में "...
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Tuesday, 19 May 2020
क्या विशेष हो तुम?
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ये तो सच है न!! तुम कोई वीर सैनिक नहीं, जिनकी मृत्यु पर देश गर्वित हो सके। न ही कोई प्रतापी नेता जिनकी मौत क...
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Monday, 18 May 2020
साँझ
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पेड़ की फुनगी में दिनभर लुका-छिपी खेलकर थका, डालियों से हौले से फिसलकर तने की गोद में लेटते ही सो जाता है, उनींदा,अलसा...
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