मन के पाखी
*हिंदी कविता* अंतर्मन के उद्वेलित विचारों का भावांकन। ©श्वेता सिन्हा
Pages
(Move to ...)
Home
प्रकृति की कविताएं
दार्शनिकता
छंदयुक्त कविताएँ
प्रेम कविताएँ
स्त्री विमर्श
सामाजिक कविता
▼
Friday, 9 April 2021
तुम्हारा मन
›
निर्लज्ज निमग्न होकर मन देता है तुम्हें मूक निमंत्रण और तुम निर्विकार,शब्द प्रहारकर झटक जाते हो प्रेम अनदेखा कर जब तुम्हारा मन नहीं होता...।...
21 comments:
Saturday, 3 April 2021
चलन से बाहर...(कुछ मुक्तक)
›
१) बिना जाने-सोचे उंगलियाँ उठा देते हैं लोग बातों से बात की चिंगारियाँ उड़ा देते हैं लोग अख़बार कोई पढ़ता नहीं चाय में डालकर किसी के दर्द को सु...
30 comments:
Saturday, 27 March 2021
कली केसरी पिचकारी
›
कली केसरी पिचकारी मन अबीर लपटायो, सखि रे! गंध मतायो भीनी राग फाग का छायो। चटख कटोरी इंद्रधनुषी वसन वसुधा रंगवायो, सरसों पीली,नीली नदियाँ स...
27 comments:
Friday, 19 March 2021
उम्र अटकी रह जाती है
›
विचारों के विशाल सिंधु की लयबद्ध लहरें मथती रहती है अनवरत, मंथन से प्राप्त विष-अमृत के घटो का विश्लेषण करता जीवन नौका पर सवार 'उम्र...
18 comments:
Wednesday, 3 March 2021
हे प्रकृति...
›
मुझे ठहरी हुई हवाएँ बेचैन करती हैं बर्फीली पहाड़ की कठिनाइयाँ असहज करती है तीख़ी धूप की झुलसन से रेत पर पड़ी मछलियों की भाँति छटपटाने लगती हूँ ...
60 comments:
Thursday, 25 February 2021
जोगिया टेसू मुस्काये रे
›
गुन-गुन छेड़े पवन बसंती धूप की झींसी हुलसाये रे, वसन हीन वन कानन में जोगिया टेसू मुस्काये रे। ऋतु फाग के स्वागत में धरणी झूमी पहन महावर, अ...
48 comments:
Monday, 22 February 2021
दौर नहीं है
›
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं। अर्थहीन शब्द मात्र,भावों के छोर नहीं हैं। उम्मीद के धागों से भविष्य की चादर बुन लेते हैं विविध रंगों से भ...
25 comments:
Thursday, 11 February 2021
मैं प्रकृति के प्यार में हूँ...।
›
मैं प्रकृति के प्यार में हूँ...। किसी उजली छाँह की तलाश नहीं है किसी मीठे झील की अब प्यास नहीं है, नभ धरा के हाशिये के आस-पास धडक रही है धीम...
34 comments:
‹
›
Home
View web version