मन के पाखी
*हिंदी कविता* अंतर्मन के उद्वेलित विचारों का भावांकन। ©श्वेता सिन्हा
Pages
(Move to ...)
Home
प्रकृति की कविताएं
दार्शनिकता
छंदयुक्त कविताएँ
प्रेम कविताएँ
स्त्री विमर्श
सामाजिक कविता
▼
Thursday, 10 October 2019
सृष्टि
›
प्रसूति-विभाग के भीतर-बाहर साधारण-सा दृष्टिगोचर असाधारण संसार पीड़ा में कराहते अनगिनत भावों से बनते-बिगड़ते, चेहरों की भीड़ ...
20 comments:
Friday, 4 October 2019
प्रभाव..एक सच
›
देश-दुनिया भर की व्यथित,भयाक्रांत विचारणीय,चर्चित ख़बरों से बेखबर समाज की दुर्घटनाओं अमानवीयता,बर्बरता से सने मानवीय मूल्य...
19 comments:
Tuesday, 1 October 2019
वृद्ध
›
चित्र साभार: सुबोध सर की वॉल से वृद्ध ---- बुझती उमर की तीलियाँ बची ज़िंदगी सुलगाता हूँ देह की गहरी लकीरें तन्हाई में सहलात...
9 comments:
Sunday, 29 September 2019
मौन सुर
›
वे नहीं जानते हैं सुर-ताल-सरगम के ध्वनि तरंगों को किसी को बोलते देख अपने कंठ में अटके अदृश्य जाल को तोड़ने की बस निरर्थक च...
15 comments:
Tuesday, 24 September 2019
मौन अर्ध्य
›
विदा लेती भादो की बेहद उदास शाम अनायास नभ के एक छोर पर उभरी अपनी कल्पना में गढ़ी बरसों उकेरी गयी प्रेम की धुंधली तस्व...
22 comments:
Monday, 23 September 2019
सजदे
›
जहाँ हो बात इंसानियत की मोहब्बत का एहतराम करते हैं इंसान को इंसान समझकर नेकियों के सजदे सरेआम करते हैं मज़हबी दड़बों से बाहर झ...
10 comments:
Tuesday, 10 September 2019
क्यों....?
›
दामन काँटों से भरना क्यों? जीने के ख़ातिर मरना क्यों? रब का डर दिखलाने वालों ख़ुद के साये से डरना क्यों? न दर्द,न टीस,न पीव-...
17 comments:
Tuesday, 3 September 2019
मंदी
›
हमारे औद्योगिक शहर में छोटे-मंझोले,बंद होते कल कारखानों,छँटनी के बाद मजदूर वर्ग के माथे पर दो समय की रोटी,भात पर चिंता की गहराती लकीरे...
10 comments:
‹
›
Home
View web version