Saturday 16 June 2018

चाँद हूँ मैं


मैं चाँद हूँ
आसमाँ के दामन से उलझा
बदरी की खिड़कियों से झाँकता
चाँदनी बिखराता हूँ
मुझे न काटो जाति धर्म की कटार से
मैं शाश्वत प्रकृति की धरोहर
हीरक कणों से सरोबार
वादियों में उतरकर
जी भर कर चूमता हूँ धरा को
करता आलिंगन बेबाक
क्या जंगल, पर्वत,बस्ती,क्या नदियों की धार
झोपड़ी की दरारों से,
अट्टालिकाओं की कगारों से
झाँककर फैलाता हूँ स्वप्निल संसार
दग्ध हृदय पर,आकुलाये मन पर
रुई के  कोमल फाहे रख,
बरसाता मधुर रसधार
ईद का चाँद मैं 
खुशियों की ईदी दे जाता हूँ
शरद की रात्रि का श्रृंगार
घट अमृत छितराता हूँ
न मैं हिंदू न मुसलिम हूँ
मैं चाँद हूँ
प्रकृति का सलोना उपहार
कुछ तो सीखो हे,मानव मुझसे
भूलकर हर दीवार
मानव बन करो मानवता से प्यार

---श्वेता सिन्हा



पापा


जग सरवर स्नेह की बूँदें
भर अंजुरी कैसे पी पाती
बिन " पापा " पीयूष घट  आप 
सरित लहर में खोती जाती
प्लावित तट पर बिना पात्र के
मैं प्यासी रह जाती!

निडर पंख फैलाकर उड़ती 
नभ के विस्तृत आँगन में
 टाँक आती मैं स्वप्न सुमन को
जीवन के फैले कानन में
आपकी शीतल छाँह बिना
मैं झुलस-झुलस मर जाती!

हरियाली जीवन की मेरे
झर-झर झरते निर्झर आप
तिमिर पंथ में दीप जलाते
सुनती पापा की पदचाप
बिना आपकी उंगली थामे
पथ भ्रांत पथिक बन जाती!

समयचक्र पर आपकी बातें,
स्मृतियाँ विह्वल कर जाती है
काँपती जीवन डोर खींच
प्रत्यंचा मृत्यु चढ़ाती है
संबल,साहस,संघर्ष का ज्ञान
आपकी सीख, मैं कभी भूल न पाती
मैं कभी भूल न पाती


--श्वेता सिन्हा

Tuesday 12 June 2018

अच्छा नहीं लगता


अश्कों का आँख से ढलना हमें अच्छा नहीं लगता
तड़पना,तेरा दर्द में जलना हमें अच्छा नहीं लगता

भिगाती है लहर आकर, फिर भी सूखा ये मौसम है
प्यास को रेत का छलना  हमें अच्छा नहीं लगता 

क़फ़स में जां सिसकती है फ़लक सूना बहारों का
दुबककर मौत का पलना हमें अच्छा नहीं लगता

लोग पत्थर समझते हैं तो तुम रब का भरम रखो
तेरा टुकड़ोंं में यूँ गलना हमें अच्छा नहीं लगता

झलक खुशियों की देखी है वक़्त की पहरेदारी में
याद में ज़ख़्म का हलना हमें अच्छा नहीं लगता

कहो दामन बिछा दूँ मैं तेरी राहों के कंकर पर
ज़मीं पर चाँद का चलना हमें अच्छा नहीं लगता

    --श्वेता सिन्हा



मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...