Saturday 22 September 2018

तृष्णा


मदिर प्रीत की चाह लिये
हिय तृष्णा में भरमाई रे
जानूँ न जोगी काहे 
सुध-बुध खोई पगलाई रे

सपनों के चंदन वन महके
चंचल पाखी मधुवन चहके
चख पराग बतरस जोगी
मैं मन ही मन बौराई रे

"पी"आकर्षण माया,भ्रम में
तर्क-वितर्क के उलझे क्रम में
सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी
राह ठिठकी मैं चकराई रे

उड़-उड़कर पंख हुये शिथिल 
नभ अंतहीन इच्छाएँ जटिल 
हर्ष-विषाद गिन-गिन जोगी
क्षणभर भी जी न पाई रे

जीवन वैतरणी के तट पर
तृप्ति का रीता घट लेकर
मोह की बूँदें भर-भर जोगी
मैं तृष्णा से अकुलाई रे

-श्वेता सिन्हा

Wednesday 19 September 2018

समुंदर

मोह के समुंदर में
डूबता उतराता मन
छटपटाती लहर भाव की
वेग से आती
आहृलादित होकर
किलकती,शोर मचाती
बहा ले जाना चाहती है
अपनी मोहक, फेनिल,
लहरों में खींचकर
हक़ीक़त की रेत का
 स्पर्श करते ही लहर
टूटकर बिखर जाती है
चुपचाप लौट जाती है
तट की मर्यादा के मान
के लिए।

★★★

अनन्त तक पसरे 
 समुंदर की
 गहराई नापने की 
 उत्सुकता में
एक बार छू लिया
मचलते लहरों के सीने को
तब से हूँ लापता
विस्तृत समुंदर के
पाश में आबद्ध

★★★

समुंदर समेटकर
रखता है
अपने आगोश में
समूचा आसमान,
सूरज की तीक्ष्णता
सोखकर
चंदा की शीतलता
ओढ़कर
पीकर अनगिन
नदियों की मिठास
गर्भ के खज़ाने
के दर्प से अनभिज्ञ
नहीं बदलता
अपना स्वभाव
निर्निमेष,निष्काम
निःशब्द 
प्रकृति की उकताहट
अपनी लहरों से
उलीचता है अनवरत

★★★★★

-श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...