Friday 7 June 2019

रात


अक्सर जब शाम की डोली
थके हुये घटाओं के
शानों से उतरती है
छनकती चाँदनी की पाजेब से
टूटकर घुँघरू
ख़्वाबों के आँगन बिखरती है

ख़ामोश दरख़्तों के
गीली बाहों में
परिदों के सो जाने के बाद
बेआवाज़ 
पत्तियाँ जुगनुओं से
रातभर बातें करती हैं।

स्याह दामन के नर्म 
तन्हाइयों में सोयी 
दूध-सी झीलों के
बियाब़ां किनारे पर
ख़ामोशी के रेज़ों को 
चुन-चुनकर
शब झोली में भरती है।

लम्हा-लम्हा सरकती रात
हवाओं की थपकियों से
बेज़ान लुढ़क कर
पहाड़ी के कोहान पर 
सिर टिकाये 
भोर की राह तकती है।

 #श्वेता सिन्हा

Tuesday 4 June 2019

तुम्हारी आँखें

ठाठें मारता 
ज्वार से लबरेज़
नमकीन नहीं मीठा समुंदर
तुम्हारी आँखें

तुम्हारे चेहरे की
मासूम परछाई
मुझमें धड़कती है प्रतिक्षण
टपकती है सूखे मन पर
बूँद-बूँद समाती
एकटुक निहारती
तुम्हारी आँखें

नींद में भी चौंकाती
रह-रह कर परिक्रमा करती
मन के खोह,अबूझ कंदराओं,
चोर तहखानों का
स्वप्न के गलियारे में 
थामकर उंगली
अठखेलियाँ करती
देह पर उकेरती 
बारीक कलाकृत्तियाँ
तुम्हारी आँखें

बर्फ की छुअन-सी
तन को सिहराती
कभी धूप कभी चाँदनी
कभी बादल के नाव पर उतारती
दिन के उगने से रात के ढलने तक
दिशाओं के हर कोने से
एकटुक ताकती
मोरपंखी बन सहलाती
तुम्हारी आँखें

#श्वेता सिन्हा

Monday 3 June 2019

सावित्री


वैज्ञानिक विश्लेषण में
सारहीन,अटपटा ... फिर भी ..
कच्चे धागे लपेटकर
बरगद की फेरी
नाक से माँग तक 
टीका गया पीपा सिंदूर,
आँचल के कोर को
मेंहदी लगी हथेलियों में रखकर
हाथों को जोड़कर श्रद्धापूर्वक
सावित्री की तरह
अपने सत्यवान के लिए
माँगी गयी मनौती
सत्यवान और सावित्री के 
अमर, अटल शाश्वत प्रेम की 
 कहानी तर्कों से
 काल्पनिक और
आधारहीन भले माना गया हो
पर देखियेगा पढ़कर कभी
एक भारतीय नारी के
 संस्कार और मर्यादा के 
 बंधनों के ऊपर तैरता "मन"
सघन बरगद की 
मजबूत शाखाओं-सा
गूँथकर हृदय के 
स्नेहिल स्पंदन 
प्रेम के विस्तृत आकाश को 
मौन सहेजता 
असंख्य अनगिनत
आच्छादित पत्तियों-सा
अपने रोम-रोम में
जीती महसूस करती है 
अपने मन के मीत के
साथ हर क्षण को
और बरगद के तन पर लपेटकर
भावनाओं के कच्चे सूत
वो चाहती है  
पाताल नापती जड़ जैसी
गहरा शाश्वत प्रेम... 
जीवनभर का अटूट साथ 
अजर, अमर, अटल ...
जैसे सावित्री और सत्यवान।

#श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...