भूख के एहसास पर
आदिम युग से
सभ्यताओं के पनपने के पूर्व
अनवरत,अविराम
जलते चूल्हे...
जिस पर खदकता रहता हैं
अतृप्त पेट के लिए
आशाओं और सपनों का भात,
जलते चूल्हों के
आश्वासन पर
निश्चित किये जाते हैं
वर्तमान और भविष्य की
परोसी थाली के निवाले
उठते धुएँ से जलती
पनियायी आँखों से
टपकती हैं
मजबूरियाँ
कभी छलकती हैं खुशियाँ,
धुएँ की गंध में छिपी होती हैं
सुख-दुःख की कहानियाँ
जलती आग के नीचे
सुलगते अंगारों में
लिखे होते हैं
आँँसू और मुस्कान के हिसाब
बुझी आग की राख में
उड़ती हैंं
पीढ़ियों की लोक-कथाएँ
बुझे चूल्हे बहुत रूलाते हैं
स्मरण करवाते हैं
जीवन का सत्य
कि यही तो होते हैं
मनुष्य के
जन्म से मृत्यु तक की
यात्रा के प्रत्यक्ष साक्षी।
#श्वेता सिन्हा
२६अप्रैल२०२०
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