Monday, 3 March 2025

बेहया का फूल


 हर बरस
फागुन के मौसम में
ढाक के गंधहीन फूलों को 
बदन पर मल-मलकर 
महुआ की गंध से मतायी
मेरे श्वासों की सारंगी 
समझने का प्रयास करती है
जीवन का अर्थ...।

मेरे जन्म पर
न सप्तऋषियों ने कोई बैठक की 
न ग्रहों की चाल ने कोई
विशेष योग बनाया ...
न सूरज मुस्कुराया
न चाँद खिलखिलाया 
न सितारों ने भेजा जादुई संदेश
न मछलियाँ देखकर शरमाई
न नदियों ने किलककर तान सुनाया
न कलियों के अधर चूमकर
तितलियों ने प्यार किया
न ही पंखुडियों को छेड़कर
भँवरों ने आँखें चार किया ...
न किसी कवि ने  प्रेम गीत लिखा
न किसी शायर ने मनमीत लिखा
संसार के अपरिचित,सामान्य तट पर
किसी भी परिस्थिति में जीवट-सी
चुल्लू भर पानी में डूबकर 
पुष्पित-पल्लवित होती रही
बेहया का फूल बनकर
सदा से उदासीन और उपेक्षित 
प्रकृति का अंश होकर भी 
प्रकृति में समाने को व्याकुल,
छटपटाती रही उम्रभर...।
--------------
-श्वेता
३ मार्च २०२५

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...