Wednesday, 26 March 2025

बे-मुरव्वत है ज़िंदगी


 बे-आवाज़ ला-इलाज उम्रभर मर्ज़ देती है।
बे-मुरव्वत है ज़िंदगी बे-इंतहा दर्द देती है।


जम जाते हैं अश्क आँख के मुहाने पर;

मोहब्बत की बे-रुख़ी मौसम सर्द देती है।


 ख़्वाब इश्क़ के जब भी देखना चाहो

 दिल को धप्पा, दुनिया कम-ज़र्फ़ देती है।


सीले मन के आहातों में अंधेरा कर;

बे-वफ़ाई मोहब्बत का रंग ज़र्द देती है।


ढूँढ़ते फिर रहे ज़माने भर में मरहम;

ये आशिक़ी है, बस झूठा हमदर्द देती है।


-श्वेता

२६ मार्च२०२५

 

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