बे-आवाज़ ला-इलाज उम्रभर मर्ज़ देती है।
बे-मुरव्वत है ज़िंदगी बे-इंतहा दर्द देती है।
बे-मुरव्वत है ज़िंदगी बे-इंतहा दर्द देती है।
जम जाते हैं अश्क आँख के मुहाने पर;
मोहब्बत की बे-रुख़ी मौसम सर्द देती है।
ख़्वाब इश्क़ के जब भी देखना चाहो
दिल को धप्पा, दुनिया कम-ज़र्फ़ देती है।
सीले मन के आहातों में अंधेरा कर;
बे-वफ़ाई मोहब्बत का रंग ज़र्द देती है।
ढूँढ़ते फिर रहे ज़माने भर में मरहम;
ये आशिक़ी है, बस झूठा हमदर्द देती है।
-श्वेता
२६ मार्च२०२५