Saturday 19 May 2018

तुम जीवित हो माने कैसे?

चित्र-मनस्वी प्रांजल

लीपे चेहरों की भीड़ में
सच-झूठ पहचाने कैसे?
अनुबंध टूटते विश्वास की
मौन आहट जाने कैसे?

नब्ज संवेदना की टटोले
मोहरे बना कर मासूमियत को,
शह मात की बिसात में खेले
शकुनियों के रुप पहचाने कैसे?

खींचते है प्राण,अजगर बन
निष्प्राण अवचेतन करके
निगलते सशरीर धीरे-धीरे
फनहीन सर्पों को पहचाने कैसे?

सोच नहीं बदलता ज़माना 
कभी नारी के परिप्रेक्ष्य में
बदलते युग के गान में दबी
सिसकियों को पहचाने कैसे?

बैठे हो कान में उंगलियाँ डाले
नहीं सुनते हो चीखों को?
नहीं झकझोरती है संवेदनाएँ?
मृत नहीं तुम जीवित हो माने कैसे?


   --श्वेता सिन्हा


Wednesday 16 May 2018

पेड़ बचाओ,जीवन बचाओ

हाँ,मैंने भी देखा है
चारकोल की सड़कें
फैल रही ही है
सुरम्य पेड़ों से आच्छादित
सर्पीली घाटियों में,
सभ्य हो रहे है हम
निर्वस्त्र,बेफ्रिक्र पठारों के
छातियों को फोड़कर समतल करते,
गाँवों की सँकरी
पगडंडियों को चौड़ा करने पर,
ट्रकों में भरकर
शहर उतरेगा ,
ढोकर ले जायेगा वापसी में
गाँव का मलबा,
हाँ ,मैंने महसूस किया है 
परिवर्तन की  
आने की ख़बर से
डरे-डरे और उदास 
खिलखिलाते पेड़
रात-रात भर रोते पठार और
बिलखते खेतों को,
जाने कौन सी सुबह
उनके क्षत-विक्षत अवशेष
बिखर कर मिल जायेे माटी में
हाँ,मैंने सुना है उन्हें कहते हुये
सभ्यता के विकास के लिए
उनकी मौन कुर्बानियाँ
मानव स्मृतियों में अंकित न रहे
पर प्रकृति कभी नहीं भूलेगी
उसका असमय काल कलवित होना
शहरीकरण के लिबास पहनती सड़कों पर
जब भर जायेगा
विकास को बनाने के बाद बचा हुआ 
ज़हरीला धुआँ
तब याद में मेरी
कंकरीट खेत के मेड़ों पर
लगाये जायेगे वन
"पेड़ लगाओ,जीवन बचाओ"
के नारे के साथ।

   ----श्वेता सिन्हा






मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...