Wednesday 13 May 2020

भीड़ के हक़...


भीड़ के हक़ में दूरी है।
हर तफ़तीश अधूरी है।।

बँटा ज़माना खेमों में,
जीना मानो मजबूरी है।

फल उसूल के एक नहीं,
आदत हो गयी लंगूरी है।

चौराहे पर भीड़ जमा,
ये पागलपन अंगूरी है।

सबक़ समय का याद रहे ,
ज़ख्म भी बहुत जरूरी है।

चिराइन गंध हवाओं में,
कोई गोश्त नहीं तंदूरी है।

सितम दौर के तबतक हैं,
जबतक अपनी मंज़ूरी है।

©श्वेता सिन्हा
१३ मई २०२०

Sunday 10 May 2020

क्यों नहीं लिखते...


हे, कवि!
तुम्हारी संवेदनशील
बुद्धि के तूणीर में
हैं अचूक तीर
साहसी योद्धा,
भावनाओं के
रथ पर सज्ज
साधते हो नित्य
दृश्यमान लक्षित सत्य, 
भेद्य,दुर्ग प्राचीर!!

हे,अजेय सिपाही,

तुम सच्चे शूरवीर हो!
यूँ निर्दयी न बनो
लेखनी से अपनी
निकाल फेंको
नकारात्मकता की स्याही
अवरुद्ध कर दो 
नोंक से बहते
व्यथाओं के निर्मम गान।

ओ जादुई चितेरे 
तुम्हारी बनायी
तूलिका से चित्र
जीवित हो जाते हैं!
अपनी भविष्यद्रष्टा
लेखनी से
बदल डालो न
संसार की विसंगतियों को,
अपने अमोघास्त्र से
तुम क्यों नहीं
लिखते हो...
निरीह,बेबस,दुखियों,
निर्धनों के लिए
खिलखिलाते,
फलते-फूलते,सुखद
आनंददायक स्वप्न।

©श्वेता सिन्हा




मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...