भीड़ के हक़ में दूरी है।
हर तफ़तीश अधूरी है।।
बँटा ज़माना खेमों में,
जीना मानो मजबूरी है।
फल उसूल के एक नहीं,
आदत हो गयी लंगूरी है।
चौराहे पर भीड़ जमा,
ये पागलपन अंगूरी है।
सबक़ समय का याद रहे ,
ज़ख्म भी बहुत जरूरी है।
चिराइन गंध हवाओं में,
कोई गोश्त नहीं तंदूरी है।
सितम दौर के तबतक हैं,
जबतक अपनी मंज़ूरी है।
©श्वेता सिन्हा
१३ मई २०२०
very realistic and very nice.
ReplyDeleteThanku so much chandra.
Deleteछोटी बहर की सुन्दर ग़ज़ल प्रस्तुति।
ReplyDeleteजी सर,बहुत आभारी हूँ।
Deleteशुक्रिया।
सादर।
व्वाह....
ReplyDeleteबँटा ज़माना खेमों में,
जीना मानो मजबूरी है।
बेहतरीन अश़आर...
सादर...
बहुत आभारी हूँ दी।
Deleteआपका स्नेह मिला।
सस्नेह शुक्रिया।
सादर।
अशआर और ग़ज़ल का तो ज्ञान नहीं .. पर बेहतरीन रचना/विचार .. ख़ास कर अंगूरी और तंदूरी वाली पंक्तियाँ ... यशोदा बहन की भाषा में उवाह्ह्ह्ह्ह् ..
ReplyDeleteगुस्ताख़ी माफ़ ...
हैं जितने मज़हबी मसले
ये उन्मादी और फ़ितूरी हैं
पाप कटेंगे धाम जाकर
भला ये कैसी मगरूरी है
ज़बरन हुआ है जयमाल
पर समाज की मंज़ूरी है ...
जी, बहुत बहुत आभारी हूँ।
Deleteआपकी अनूठी प्रतिक्रियाओं की सदैव प्रतीक्षा रहती है।
मेरी रचना के सुर में सुर मिलाती आपकी लिखी पंक्तियाँ शानदार है।
बहुत शुक्रिया आपका।
वाह!श्वेता ,लाजवाब!
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ दी।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
सादर।
वाह बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ अभिलाषा जी।
Deleteसादर।
चौराहे पर भीड़ जमा,
ReplyDeleteये पागलपन अंगूरी है।
सबक़ समय का याद रहे ,
ज़ख्म भी बहुत जरूरी है।
बहुत खूब श्वेता 👌👌👌 तुम्हारे अपने मौलिक अंदाज की बहुत सुंदर सार्थक रचना। बहुतच् दिनों बाद तुम्हे तुम्हारे स्वभाविक रंग में देखकर अच्छा लगा। सस्नेह हार्दिक शुभकामनायें💐💐💐💐🌹🌹
आभारी हूँ दी।
Deleteआपकी विश्लेषात्मक प्रतिक्रिया रचना को सदैव विशेष बना देती है।
सस्नेह शुक्रिया।
सादर।
सबक़ समय का याद रहे ,
ReplyDeleteज़ख्म भी बहुत जरूरी है।
वाह!!!
सितम दौर के तबतक हैं,
जबतक अपनी मंज़ूरी है।
बहुत ही सुन्दर, सार्थक एवं लाजवाब सृजन
बहुत आभारी हूँ सुधा जी।
Deleteसस्नेह शुक्रिया
सादर।
सितम दौर के तबतक हैं,
ReplyDeleteजबतक अपनी मंज़ूरी है।👌👌👌👌
वाह क्या बात.... एकदम सटीक....
ढील देंगे तो लोग गला भी काट देंगे।
बहुत आभारी हूँ दी।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
सादर।
वाह श्वेता अलहदा लेखन गहन भाव, सटीकता समेटे सुंदर सृजन।
ReplyDeleteसस्नेह।
बहुत आभारी हूँ दी।
Deleteसस्नेह शुक्रिया ।
सादर।
वाह! विभिन्न समकालीन परिस्थितियों पर दृष्टिकोण के साथ व्यंग्य का पुट लिए सुंदर ग़ज़ल.
ReplyDeleteबधाई प्रिय श्वेता दीदी मनमोहक लेखन के लिए.
बहुत आभारी हूँ प्रिय अनु।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
चौराहे पर भीड़ जमा,
ReplyDeleteये पागलपन अंगूरी है।
देख रहे हैं पागलपन !!! कोई और करे तो अन्याय और अत्याचार कहलाएगा। घर का मालिक ही घर की जमा पूँजी शराब के हवाले कर दे तो क्या कहिएगा ?
सितम दौर के तबतक हैं,
जबतक अपनी मंज़ूरी है
ये पंक्तियाँ सब कुछ कह गईं। सितम करनेवाले का विरोध ना करोगे तो सितम क्यों कम होंगे ?
भय कितना हावी हो गया है समाज पर कि लोग अन्याय भी मुँह बंद करके सहते रहते हैं।
व्यंग्य के साथ 'सुधर जाओ' का संदेश देती है रचना।
सस्नेह।
जी दी आपकी विश्लेषात्मक प्रतिक्रिया रचना का मान बढ़ा गयी और मेरी लेखनी में उत्साह से भर गयी।
Deleteबहुत आभारी हूँ दी।
सस्नेह शुक्रिया।
सादर।
वाह बेहतरीन 👌
ReplyDeleteआभारी हूँ अनुराधा जी।
Deleteसादर शुक्रिया।
लाज़बाब सृजन श्वेता जी ,सादर नमन
ReplyDeleteआभारी हूँ कामिनी जी।
Deleteसस्नेह शुक्रिया।
सादर।
लोगों का सपना तोड़ना ही होगा।
ReplyDeleteउनको बताना होगा कि एक का पागलपन सारे संसार पर भारी पड़ेगा।
बहुत बढ़िया रचना।
आभारी हूँ रोहित जी।
Deleteसादर शुक्रिया।
बहुत आभारी हूँ सर।
ReplyDeleteसादर शुक्रिया।
बहुत आभार आपका रवींद्र जी।
ReplyDeleteसादर शुक्रिया।
सितम दौर के तबतक हैं,
ReplyDeleteजबतक अपनी मंज़ूरी है।
बहुत ही सुन्दर, सार्थक एवं लाजवाब सृजन के दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर प्रणाम स्वीकार करे