Wednesday, 13 May 2020

भीड़ के हक़...


भीड़ के हक़ में दूरी है।
हर तफ़तीश अधूरी है।।

बँटा ज़माना खेमों में,
जीना मानो मजबूरी है।

फल उसूल के एक नहीं,
आदत हो गयी लंगूरी है।

चौराहे पर भीड़ जमा,
ये पागलपन अंगूरी है।

सबक़ समय का याद रहे ,
ज़ख्म भी बहुत जरूरी है।

चिराइन गंध हवाओं में,
कोई गोश्त नहीं तंदूरी है।

सितम दौर के तबतक हैं,
जबतक अपनी मंज़ूरी है।

©श्वेता सिन्हा
१३ मई २०२०

33 comments:

  1. very realistic and very nice.

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  2. छोटी बहर की सुन्दर ग़ज़ल प्रस्तुति।

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    1. जी सर,बहुत आभारी हूँ।
      शुक्रिया।
      सादर।

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  3. व्वाह....
    बँटा ज़माना खेमों में,
    जीना मानो मजबूरी है।
    बेहतरीन अश़आर...
    सादर...

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    1. बहुत आभारी हूँ दी।
      आपका स्नेह मिला।
      सस्नेह शुक्रिया।
      सादर।

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  4. अशआर और ग़ज़ल का तो ज्ञान नहीं .. पर बेहतरीन रचना/विचार .. ख़ास कर अंगूरी और तंदूरी वाली पंक्तियाँ ... यशोदा बहन की भाषा में उवाह्ह्ह्ह्ह् ..
    गुस्ताख़ी माफ़ ...

    हैं जितने मज़हबी मसले
    ये उन्मादी और फ़ितूरी हैं

    पाप कटेंगे धाम जाकर
    भला ये कैसी मगरूरी है

    ज़बरन हुआ है जयमाल
    पर समाज की मंज़ूरी है ...

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    1. जी, बहुत बहुत आभारी हूँ।
      आपकी अनूठी प्रतिक्रियाओं की सदैव प्रतीक्षा रहती है।
      मेरी रचना के सुर में सुर मिलाती आपकी लिखी पंक्तियाँ शानदार है।
      बहुत शुक्रिया आपका।

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  5. वाह!श्वेता ,लाजवाब!

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    1. बहुत आभारी हूँ दी।
      सस्नेह शुक्रिया।
      सादर।

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  6. वाह बहुत सुंदर रचना

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    1. बहुत आभारी हूँ अभिलाषा जी।
      सादर।

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  7. चौराहे पर भीड़ जमा,
    ये पागलपन अंगूरी है।
    सबक़ समय का याद रहे ,
    ज़ख्म भी बहुत जरूरी है।
    बहुत खूब श्वेता 👌👌👌 तुम्हारे अपने मौलिक अंदाज की बहुत सुंदर सार्थक रचना। बहुतच् दिनों बाद तुम्हे तुम्हारे स्वभाविक रंग में देखकर अच्छा लगा। सस्नेह हार्दिक शुभकामनायें💐💐💐💐🌹🌹

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    1. आभारी हूँ दी।
      आपकी विश्लेषात्मक प्रतिक्रिया रचना को सदैव विशेष बना देती है।
      सस्नेह शुक्रिया।
      सादर।

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  8. सबक़ समय का याद रहे ,
    ज़ख्म भी बहुत जरूरी है।
    वाह!!!
    सितम दौर के तबतक हैं,
    जबतक अपनी मंज़ूरी है।
    बहुत ही सुन्दर, सार्थक एवं लाजवाब सृजन

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    1. बहुत आभारी हूँ सुधा जी।
      सस्नेह शुक्रिया
      सादर।

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  9. सितम दौर के तबतक हैं,
    जबतक अपनी मंज़ूरी है।👌👌👌👌

    वाह क्या बात.... एकदम सटीक....
    ढील देंगे तो लोग गला भी काट देंगे।


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    1. बहुत आभारी हूँ दी।
      सस्नेह शुक्रिया।
      सादर।

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  10. वाह श्वेता अलहदा लेखन गहन भाव, सटीकता समेटे सुंदर सृजन।
    सस्नेह।

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    1. बहुत आभारी हूँ दी।
      सस्नेह शुक्रिया ।
      सादर।

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  11. वाह! विभिन्न समकालीन परिस्थितियों पर दृष्टिकोण के साथ व्यंग्य का पुट लिए सुंदर ग़ज़ल.
    बधाई प्रिय श्वेता दीदी मनमोहक लेखन के लिए.

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    1. बहुत आभारी हूँ प्रिय अनु।
      सस्नेह शुक्रिया।

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  12. चौराहे पर भीड़ जमा,
    ये पागलपन अंगूरी है।
    देख रहे हैं पागलपन !!! कोई और करे तो अन्याय और अत्याचार कहलाएगा। घर का मालिक ही घर की जमा पूँजी शराब के हवाले कर दे तो क्या कहिएगा ?
    सितम दौर के तबतक हैं,
    जबतक अपनी मंज़ूरी है
    ये पंक्तियाँ सब कुछ कह गईं। सितम करनेवाले का विरोध ना करोगे तो सितम क्यों कम होंगे ?
    भय कितना हावी हो गया है समाज पर कि लोग अन्याय भी मुँह बंद करके सहते रहते हैं।
    व्यंग्य के साथ 'सुधर जाओ' का संदेश देती है रचना।
    सस्नेह।

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    1. जी दी आपकी विश्लेषात्मक प्रतिक्रिया रचना का मान बढ़ा गयी और मेरी लेखनी में उत्साह से भर गयी।
      बहुत आभारी हूँ दी।
      सस्नेह शुक्रिया।
      सादर।

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  13. वाह बेहतरीन 👌

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    1. आभारी हूँ अनुराधा जी।
      सादर शुक्रिया।

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  14. लाज़बाब सृजन श्वेता जी ,सादर नमन

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    1. आभारी हूँ कामिनी जी।
      सस्नेह शुक्रिया।
      सादर।

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  15. लोगों का सपना तोड़ना ही होगा।
    उनको बताना होगा कि एक का पागलपन सारे संसार पर भारी पड़ेगा।

    बहुत बढ़िया रचना।

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    1. आभारी हूँ रोहित जी।
      सादर शुक्रिया।

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  16. बहुत आभारी हूँ सर।
    सादर शुक्रिया।

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  17. बहुत आभार आपका रवींद्र जी।
    सादर शुक्रिया।

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  18. सितम दौर के तबतक हैं,
    जबतक अपनी मंज़ूरी है।
    बहुत ही सुन्दर, सार्थक एवं लाजवाब सृजन के दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर प्रणाम स्वीकार करे

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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