भीड़ के हक़ में दूरी है।
हर तफ़तीश अधूरी है।।
बँटा ज़माना खेमों में,
जीना मानो मजबूरी है।
फल उसूल के एक नहीं,
आदत हो गयी लंगूरी है।
चौराहे पर भीड़ जमा,
ये पागलपन अंगूरी है।
सबक़ समय का याद रहे ,
ज़ख्म भी बहुत जरूरी है।
चिराइन गंध हवाओं में,
कोई गोश्त नहीं तंदूरी है।
सितम दौर के तबतक हैं,
जबतक अपनी मंज़ूरी है।
©श्वेता सिन्हा
१३ मई २०२०