थोड़ी इंसानियत तो आदमी में रहने दो।
पत्थर नहीं हो रौ जज़्बात की बहने दो।।
बे-हाल लहूलुहान है वो शहर आजकल,
बे-नाम सड़कों पे दरिया मरहम का बहने दो।
जज़्ब कहाँ हो पाते हैं आँखों के समुंदर,
अश्क में भीगे सपने दहते हैं तो दहने दो ।
काग़ज़ के कुछ फूल लगाके खिड़की पे,
बहारों के ग़म ख़ामोशी से सहने दो।
बहुत मायूस है दिल-ए- नादां समझाऊँ कैसे,
आओ न बैठो पहलू में दर्द ज़रा-सा कहने दो।
रोज़ कहती हूँ ज़िंदगी से बे-ज़ार रूह को,
कुछ दिन और जिस्म के पिंजर में रहने दो।
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✍️श्वेता
१२ जुलाई २०२५