Saturday, 12 July 2025

दर्द ज़रा कहने दो


थोड़ी इंसानियत तो आदमी में रहने दो।
पत्थर नहीं हो  रौ जज़्बात की बहने दो।।

बे-हाल लहूलुहान है वो शहर आजकल,
बे-नाम सड़कों पे दरिया मरहम का बहने दो।

जज़्ब कहाँ हो पाते हैं आँखों के समुंदर,
अश्क में भीगे सपने दहते हैं तो दहने दो ।
  
काग़ज़ के कुछ फूल लगाके खिड़की पे,
बहारों के ग़म ख़ामोशी से सहने दो।

बहुत मायूस है दिल-ए- नादां समझाऊँ कैसे,
आओ न बैठो पहलू में दर्द ज़रा-सा कहने दो।

रोज़ कहती हूँ ज़िंदगी से बे-ज़ार रूह को, 
कुछ दिन और जिस्म के पिंजर में रहने दो।
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✍️श्वेता
१२ जुलाई २०२५

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