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Monday 30 November 2020

चाँद

ठिठुरती रात,
झरती ओस की
चुनरी लपेटे
खटखटा रही है
बंद द्वार का
साँकल।


साँझ से ही
छत की अलगनी
से टँगा
झाँक रहा है
शीशे के झरोखे से
उदास चाँद
तन्हाई का दुशाला 
ओढ़े।


नभ के
नील आँचल से
छुप-छुपकर
झाँकता 
आँखों की
ख़्वाबभरी अधखुली
कटोरियों की
सारी अनकही चिट्ठियों की 
स्याही पीकर बौराया
बूँद-बूँद टपकता
मन के उजले पन्नों पर
धनक एहसास की 
कविताएँ रचता
 चाँद।


शांत झील की 
गोद में लहराती
चाँदनी की लटें,
पहाड़ी की बाहों में बेसुध
बादलों की टोलियाँ
वृक्षों की शाखों पर
उनींदे पक्षियों की 
सरसराहटें
हवाओं की धीमी
फुसफुसाहटें
और...
ठंड़ी रात की नीरवता के
हरपल में 
चाँद के मद्धिम
आँच में धीमे-धीमे
खदबदाती
कच्चे रंगों में
स्वप्नों की 
बेरंग चुन्नियाँ  ...।


#श्वेता सिन्हा
 
 

Tuesday 2 June 2020

दस्तक...


नन्हें जुगनुओं को
स्याह दुपट्टे के
किनारों में गूँथती रात
शाम से ही
करती पहरेदारी
नभ के माथे पर
लगाकर
दमकते चाँद का 
रजत टीका।

चिड़ियों की 
अबूझ अंतराक्षरी 
सुनकर भोर लेती 
अंगडाई, 
शीतल झकोरे की
छुअन से सिहरी
पत्तियों पर
नर्तन करती 
धूप की शोख़ बालियाँ 
 ठुमककर रिझाती 
 बाग-बगीचे को ।

नदियों,झरनों की
उन्मुक्त खिलखिलाहट से
आह्लादित
दिन कुलांचे भरकर
पुकारता है घटाओं को
धरती के आँचल में
ऋतुओं का
धनक रंग धरने को।

कठोर गगनचुंबी गर्वीले
निर्जन धूसर पहाड़ के
सीने पर टँके
गहरे हरे घने वृक्षों से
उलझी लताओं में
छुआ-छुई खेलती
गिलहरियाँ 
पकते धूप की
जलती पीड़ा कुतरती है।

कोमल पातों से 
लटकी बूँदों को पीकर
जोते गये खेतों की
उर्वर माटी को
बींधती जीवनदायिनी
 किरणें
 नियमित,निरंतर
अपने प्रगाढ आलिंगन से
धरती के गर्भ में पलते
भविष्य के भ्रूणों में
नवप्राण भरती है।

और...
उपभोगवादी,अवसरवादी 
अतृप्त लालसाओं से युक्त
सुविधाभोगी मनुष्य 
दूषित कर प्रकृति 
छीजता  संसाधन
बिगाड़ता संतुलन।

सुनो मनुष्य!
समरसता की आस में
थक चुकी रोष से भरी 
प्रकृति के प्रतिकार का
क्षणांश नाद ही
महाविनाश  की
मौन पदचाप,
दस्तक है।

#श्वेता सिन्हा
२ जून२०२०

Friday 22 May 2020

परिपक्वता


किसी 
अदृश्य मादक सुगंध
की भाँति
प्रेम ढक लेता है
चैतन्यता,
मन की शिराओं से
उलझता प्रेम
आदि में 
अपने होने के मर्म में
"सर्वस्व" 
और सबसे अंत में 
"कुछ भी नहीं"
 होने का विराम है।

कदाचित्
सर्वस्व से विराम के
मध्य का तत्व
जीवन से निस्तार
का संपूर्ण शोध हो...
किंतु 
प्रकृति के रहस्यों का
सूक्ष्म अन्वेषण,
"आत्मबोध"
विरक्ति का मार्ग है
गात्रधर सासांरिकता
त्याज्य करने से प्राप्त।

प्रेम असह्य दुःख है! 
तो क्या "आत्मबोध"
व्रणमुक्त
संपूर्ण आनंद है?
गुत्थियों को
सुलझाने में
आत्ममंथन की
अनवरत यात्रा
जो प्रेम की
निश्छलता के
बलिदान पर
ज्ञान की
परिपक्वता है।

©श्वेता सिन्हा

Thursday 9 April 2020

दायित्व


प्रकृति के कोप के
विस्फोट के फलस्वरूप
नन्हें-नन्हें असंख्य मृत्यु दूत
ब्रह्मांड के अदृश्य पटल से
धरा पर आक्रमण कर
सृष्टि से
मानवों का अस्तित्व मिटाने के लिए
संकल्प रखा हो मानो..
जीवन बचाने के लिए
वचनबद्ध,कर्मठ,
जीवन और मृत्यु के महासमर में
रक्षक बनकर
सेनापति चिकित्सक एवं उनके
असंख्य सहयोगी योद्धा
यथाशक्ति अपनी क्षमता अनुरुप
भूलकर अपना सुख,
घर-परिवार 
मृत्यु से साक्षात्कार कर रहे हैं
अस्पतालों के असुरक्षित रणभूमि में
मानव जाति के प्राणों को
सुरक्षित रखने के लिए संघर्षरत  
अनमयस्क भयभीत
क्षुद्र मानसिकता
मूढ़ मनुष्यों के तिरस्कार,
अमानवीय व्यवहार से चकित 
आहत होकर भी
अपनी कर्मठता के प्रण में अडिग
मृत्यु की बर्बर आँधी से
उजड़ती सभ्यताओं की 
बस्ती में,
सुरक्षा घेरा बनाते
अपने प्राण हथेलियों पर लिये
मानवता के
साँसों को बाँधने का यत्न करते,
जीवन पुंजों के सजग प्रहरियों को
कुछ और न सही
स्नेह,सम्मान और सहयोग देकर
इन चिकित्सक योद्धाओं का
मनोबल दृढ़ करना
प्रत्येक नागरिक का
दायित्व होना चाहिए।

#श्वेता

९अप्रैल२०२०

Thursday 2 April 2020

असंतुलन


क्या सचमुच एकदिन 
मर जायेगी इंसानियत?
क्या मानवता स्व के रुप में
अपनी जाति,अपने धर्म
अपने समाज के लोगों
की पहचान बनकर
इतरायेगी?
क्या सर्वस्व पा लेने की मरीचिका में
भटककर मानवीय मूल्य
सदैव के लिए ऐतिहासिक
धरोहरों की तरह 
संग्रहालयों में दर्शनीय होंगे
अच्छाई और सच्चाई
पौराणिक दंतकथाओं की तरह
सुनाये जायेंगे
क्या परोपकार भी स्वार्थ का ही
अंश कहलायेगा?
क्या संदेह के विषैले बीज
 प्रेम की खेतों को
सदा के लिए बंजर कर देगा?
क्या भावनाओं के प्रतिपल
हो रहे अवमूल्यन से
विलुप्त हो जायेंगी
भावुक मानवीय प्रजाति?
क्या हमारी आने वाली पीढ़ियाँ
रोबोट सरीखे,
हृदयहीन,असंवेदनशील
इंसानों की बस्ती के
यंत्रचालित पुतले होकर
रह जायेगी?

हाँ मानती हूँ
असंतुलन सृष्टि का
शाश्वत सत्य है,
सुख-दुख,रात-दिन,
जीवन-मृत्यु की तरह ही
कुछ भी संतुलित नहीं
परंतु विषमता की मात्राओं को
मैं समझना चाहती हूँ,
क्यों नकारात्मक वृत्तियाँ
सकारात्मकता पर 
हावी रहती हैं?
क्यूँ सद्गुणों का तराजू
चंद मजबूरियों के सिक्कों के
भार से झुक जाता है?

सोचती हूँ,
बदलाव तो प्रकृति का
शाश्वत नियम है,
अगर वृत्तियों और प्रवृत्तियों
की मात्राओं के माप में
अच्छाई का प्रतिशत
बुराई से ज्यादा हो जाये
तो इस बदले असंतुलन से
सृष्टि का क्या बिगड़ जायेगा? 

#श्वेता सिन्हा

Tuesday 17 March 2020

महामारी से महायुद्ध


काल के धारदार
नाखून में अटके
मानवता के मृत,
सड़े हुये,
अवशेष से उत्पन्न
परजीवी विषाणु,
सबसे कमजोर शिकार की
टोह में दम साधकर 
प्रतीक्षा करते हैं
भविष्य के अंंधेरों में
छुपकर।

मनुष्यों के स्वार्थी
तीरों से विदीर्ण हुई
कराहती 
प्रकृति के अभिशाप से
जर्जर हुये कंगूरों पर
रेंगती लताओं से
चिपटकर चुपचाप 
परजीवी चूसते हैं
बूँद-बूँद
जीवनी शिराओं का रस
कृश तन,भयभीत मन को
शक्तिशाली होने का भ्रम दिखा 
संक्रमित कर सभ्यताओं को
गुलाम बनाकर 
राज करना चाहते हैं
संपूर्ण पृथ्वी पर।

धैर्य एवं सकारात्मकता के
कालजयी अस्त्रों
से सुशोभित 
सजग,निडर योद्धा
काल के परिस्थितिजन्य 
विषधर परजीवियों 
के साथ हुये
महाविनाशकारी
महायुद्ध में
मृत्यु के तुमुलनाद से
उद्वेलित,
काल-कलवित होते
मानवों की संख्यात्मक वृद्धि से
विचलित,
किंतु दृढ़प्रतिज्ञ,
संक्रमित नुकीले
महामारी के
विषदंतों को 
समूल नष्ट करने के लिए
अनुसंधानरत,
अतिशीघ्र
मिटाकर अस्तित्व
विषैले परजीवियों का,
विजय रण-भेरी फूँककर
आशान्वित
संपूर्ण विश्व को
चिंतामुक्त कर
आह्लादित करने को
कटिबद्ध हैं।

#श्वेता सिन्हा
१७/०३/२०२० 


Sunday 23 February 2020

विरहिणी/वसंत


सूनी रात के अंतिम प्रहर
एक-एककर झरते
वृक्षों से विलग होकर
गली में बिछे,
सूखे पत्रों को
सहलाती पुरवाई ने
उदास ड्योढ़ी को
स्नेह से चूमा,
मधुर स्मृतियों की
साँकल खड़कने से चिंहुकी,
कोयल की  पुकार से उठी 
मन की हूक को दबाये
डबडबाई पलकें पोंछती 
पतझड़ से जीवन में 'वह'
वसंत की आहट सुनती है।

हवाओं में घुली
नवयौवना पुष्पों की गंध,
खिलखिलाई धूप से
दालान के बाहर 
ताबंई हुई वनचम्पा
जंगली घास से भरी
 क्यारियों में
 बेतरतीब से खिले
डालिया और गेंदा
 को रिझाते
अपनी धुन में मगन
भँवरों की नटखट टोलियाँ,
मुंडेर पर गूँटर-गूँ करते
भूरे-सफेद कबूतर
फुदकती बुलबुल
नन्हें केसरी बूटों
की फुलकारी से शोभित 
नागफनी की कंटीली बाड़ से
उलझे दुपट्टे उंगली थामे
स्मृतियों का वसंत 
जीवंत कर जाते हैं।

विरह की उष्मा  
पिघलाती है बर्फ़
पलकों से बूँद-बूँद
टपकती है वेदना 
भिंगाती है धरती की कोख 
सोये बीज सींचे जाते हैं,
फूटती है प्रकृति के
अंग-प्रत्यंग से सुषमा,
अनहद राग-रागिनियाँ...,
यूँ ही नहीं 
ओढ़ते हैं निर्जन वन
सुर्ख़ ढाक की ओढ़नी,
मौसम की निर्ममता से
ठूँठ हुयी प्रकृति का 
यूँ ही नहीं होता 
नख-शिख श्रृंगार,
प्रेम की प्रतीक्षा में 
चिर विरहिणियों के
अधीर हो कपसने से,
अकुलाई,पवित्र प्रार्थनाओं से
अँखुआता है वसंत

#श्वेता सिन्हा
२३/०२/२०२०



Sunday 16 February 2020

मधुमास


बर्फीली ठंड,कुहरे से जर्जर,
ओदायी, 
शीत की निष्ठुरता से उदास,
पल-पल सिहरती
आखिरी साँस लेती
पीली पात
मधुमास की प्रतीक्षा में,
बसंती हवा की पहली 
पगलाई छुअन से तृप्त
शाख़ से लचककर 
सहजता से
विलग हो जाती है। 

ठूँठ पर 
ठहरी नरम ओस की 
अंतिम बूँद को 
पीने के बाद
मतायी हवाओं के
स्नेहिल स्पर्श से
फूटती नाजुक मंजरियाँ, 
वनवीथियों में भटकते
महुये की गंध से उन्मत
भँवरें फुसफुसाते हैं
मधुमास की बाट जोहती,
बाग के परिमल पुष्पों 
के पराग में भीगी,
रस चूसती,
तितलियों के कानों में।

बादलों के गाँव में
होने लगी सुगबुगाहट
सूरज ने ली अंगड़ाई,
फगुनहट के नेह ताप से
आरक्त टेसु,
कूहू की पुकार से
व्याकुल,
सुकुमार सरसों की
फूटती कलियों पर मुग्ध
खिलखिलाई चटकीली धूप।

मधुमास शिराओं में 
महसूस करती
दिगंबर प्रकृति
नरम,स्निग्ध,
मूँगिया ओढ़नी पहनकर
लजाती,इतराती है।

#श्वेता सिन्हा
१६/०२/२०२०

Sunday 9 February 2020

पदचाप



चित्र:साभार सुबोध सर की वॉल से
-------
सरल अनुभूति के जटिल अर्थ,
भाव खदबदाहट, झुलसाते भाप।
जग के मायावी वीथियों में गूँजित
चीन्हे-अनचीन्हे असंख्य पदचाप।

तम की गहनता पर खिलखिलाते,
तप तारों का,भोर के लिए मंत्रजाप।
मूक परिवर्तन अविराम,क्षण-प्रतिक्षण, 
गतिमान काल का निस्पृह पदचाप

ज्ञान-अज्ञान,जड़-चेतन के गूढ़ प्रश्न,
ब्रह्मांड में स्पंदित नैसर्गिक आलाप।
निर्माण के संग विनाश का शाप,
जीवन लाती है मृत्यु की पदचाप।

सृष्टि के कण-कण की चित्रकारी,
धरा-प्रकृति , ब्रह्म जीव की छाप।
हे कवि!तुम प्रतीक हो उजास की,
लिखो निराशा में आशा की पदचाप।

#श्वेता सिन्हा
०९/०२/२०२०

Friday 10 January 2020

जिजीविषा



(१)
घना अंधेरा कांधे पर
उठाये निरीह रात के
थकान से बोझिल हो
पलक झपकाते ही
सुबह
लाद लेती है सूरज
अपने पीठ पर
समय की लाठी की
उंगली थामे
जलती,हाँफती 
अपनी परछाई ढोती
चढ़ती जाती है,
टेढ़ी-मेढ़ी
पहाड़ी की सँकरी
पगडंडियों में उलझकर
क्षीण हो
शून्य में विलीन होनेतक
संघर्षरत
अपनी अस्तित्व की 
जिजीविषा में।

(२)
बीज से वृक्ष 
तक का संघर्ष  
माटी की कोख से 
फूटना
पनपना,हरियाना,
फलना-फूलना
सूखना-झरना 
पतझड़ से मधुमास
सौंदर्य से जर्जरता के मध्य
स्पंदन से निर्जीवता के मध्य
सार्थकता से निर्रथकता के मध्य
प्रकृति हो या जीव
जग के महासमर में
प्रत्येक क्षण
परिस्थितियों के अधीन
जन्म से मृत्यु तक
जीवन के
मायाजाल में उलझी
जिजीविषा।

#श्वेता सिन्हा
१०/१/२०२०


Wednesday 1 January 2020

यात्रा


समय की ज़ेब से निकालकर 
तिथियों की रेज़गारी
अनजाने पलों के बाज़ार में
अनदेखी पहेलियों की
गठरी में छुपे,
मजबूरी हैं मोलना
अनजान दिवस के ढेरियों को 
सुख-दुख की पोटली में
बंद महीनों को ढोते
स्मृतियों में जुड़ते हैं
खनखनाते नववर्ष।

हर रात बोझिल आँखें
बुनती हैं स्वप्न
भोर की किरणों से
जीवन की जरूरतों की
चादर पर खूबसूरत
 फुलकारी उकेरने की
 कभी राह की सुईयाँ
 लहुलुहान कर देती हैं उंगलियाँ
 कभी टूट जाते हैं हौसलों के धागे
 कर्मों की कढ़ाई की निरंतरता
 आशाओं के मोरपंख
 कभी अनायास ही जीवन को
 सहलाकर मृदुलता से
  ख़ुरदरे दरारों में
 रंग और खुशबू भर जाते हैं
महका जाते हैं जीवन के संघर्ष
पल,दिवस,महीने और वर्ष।

 अटल,अविचल,स्थिर
 समय की परिक्रमा करते हैं
 सृष्टि के कण-कण
 अपनी निश्चित धुरियों में,
 विषमताओं से भरी प्रकृति 
 क्षण-क्षण बदलती है
 जीवों के उत्पत्ति से लेकर
 विनाश तक की यात्रा में,
 जीवन मोह के गुरुत्वाकर्षण
 में बँधा प्रत्येक क्षण
 अपने स्वरूप नष्ट होने तक 
 दिन,वार,मास और वर्ष में
 बदलते परिस्थितियों के अनुरूप
नवल से जीर्ण की
 आदि से अनंत की
 दिक् से दिगंत की
अथक यात्रा करता है।

#श्वेता सिन्हा
१/१/२०२०

Tuesday 24 December 2019

सेंटा


मेरे प्यारे सेंटा 
कोई तुम्हें कल्पना कहता है
कोई यथार्थ की कहानी,
तुम जो भी हो 
लगते हो प्रचलित
लोक कथाओं के 
सबसे उत्कृष्ट किरदार,
स्वार्थी,मतलबी,
ईष्या,द्वेष से भरी
इंसानों की दुनिया में
तुम प्रेम की झोली लादे
बाँटते हो खुशियाँ
लगते हो मानवता के
साक्षात अवतार।

छोटी-छोटी इच्छाओं,
खुशियों,मुस्कुराहटों को,
जादुई पोटली में लादे
तुम बिखेर जाते हो
अनगिनत,आश्चर्यजनक
 उपहार,
सपनों के आँगन में,
वर्षभर तुम्हारे आने की
राह देखते बच्चों की
मासूम आँखों में
नयी आशा के
अनमोल अंकुर
बो जाते हो।

सुनो न सेंटा!
क्या इस बार तुम
अपनी लाल झोली में
मासूम बच्चों के साथ-साथ
बड़ों के लिए भी 
कुछ उपहार नहीं ला सकते?
कुछ बीज छिड़क जाओ न
समृद्धि से भरपूर
हमारे खेतों में,
जो भेद किये बिना
मिटा सके भूख
कुछ बूँद ले आओ न
जादुई  
जो निर्मल कर दे
जलधाराओं को,
ताल,कूप,नदियाँ
तृप्त हो जाये हर कंठ,
शुद्ध कर दो न...
इन दूषित हवाओं को,
नष्ट होती 
प्रकृति को दे दो ना
अक्षत हरीतिमा का आशीष।

तुम तो सदियों से करते आये हो
परोपकार, 
इस बार कर दो न चमत्कार,
वर्षों से संचित पुण्य का
कुछ अंश कर दो न दान
जिससे हो जाये 
हृदय-परिवर्तन
और हम बड़े भूलकर
क्रूरता,असंवेदनशीलता
विस्मृत इंसानियत
महसूस कर सके
दूसरों की पीड़ा,
व्यथित हो करुणा से भरे
हमारे हृदय,
हर भेद से बंधनमुक्त 
गीत गायें प्रेम और
मानवता के,
हम मनुष्य बनकर रह सके
धरा पर मात्र एक मनुष्य।

#श्वेता

Saturday 14 December 2019

वीर सैनिक

चित्र:साभार गूगल
-------
हिमयुग-सी बर्फीली
सर्दियों में
सियाचिन के
बंजर श्वेत निर्मम पहाड़ों 
और सँकरें दर्रों की
धवल पगडंडियों पर
चींटियों की भाँति कतारबद्ध
कमर पर रस्सी बाँधे
एक-दूसरे को ढ़ाढ़स बँधाते
ठिठुरते,कंपकंपाते,
हथेलियों में लिये प्राण
निभाते कर्तव्य
वीर सैनिक।

उड़ते हिमकणों से
लिपटी वादियों में
कठिनाई से श्वास लेते
सुई चुभाती हवाओं में
पीठ पर मनभर भार लादे
सुस्त गति,चुस्त हिम्मत
दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ  ,
प्रकृति की निर्ममता से
जूझते 
पशु-पक्षी,पेड़-विहीन
निर्जन अपारदर्शी काँच से पहाड़ों 
के बंकरों में
गज़भर काठ की पाटियों पर
अनदेखे शत्रुओं की करते प्रतीक्षा
वीर सैनिक।

एकांत,मौन में
जमी बर्फ की पहाड़ियों के
भीतर बहती जलधाराओं-सी
बहती हैं भावनाएँ
प्रतिबिंबित होती है
भीतर ही भीतर दृश्य-पटल पर
श्वेत पहाड़ों की 
रंगहीन शाखों से
झरती हैं बचपन से जवानी तक 
की इंद्रधनुषी स्मृतियाँ
"बुखारी"-सी गरमाहट लिये...,
गुनगुनी धूप के साथ
सरकती चारपाई,
मूँगफली,छीमियों के लिए
साथियों से
छीना-झपटी कुश्ती, लड़ाई,
अम्मा की गरम रोटियाँ
बाबा की झिड़की,
भाभी की बुनाई,
तिल-गुड़,नये धान की
रसीली मिठाई....,
स्मृतियों के चटखते
अलाव की गरमाहट में
साँझ ढले  
गहन अंधकार में
बर्फ के अनंत समुन्द्र में
हिचकोले खाती नाव पर सवार
घर वापसी की आस में
दिन-गिनते,
कभी-कभी बर्फीले सैलाब में
सदा के लिए विलीन हो जाते हैं
कभी लौट कर नहीं आते हैं
वीर सैनिक।

#श्वेता सिन्हा

Wednesday 11 December 2019

मोह-भंग


भोर का ललछौंहा सूरज,
हवाओं की शरारत,
दूबों,पत्तों पर ठहरी ओस,
चिड़ियों की  किलकारी,
फूल-कली,तितली
भँवरे जंगल के चटकीले रंग;
धवल शिखरों की तमतमाहट
बादल,बारिश,धूप की गुनगुनाहट
झरनो,नदियों की खनखनाहट
समुंदर,रेत के मैदानों की बुदबुदाहट
प्रकृति के निःशब्द,निर्मल,निष्कलुष
 कैनवास पर उकेरे
 सम्मोहक चित्रों से विरक्त,
निर्विकार,तटस्थ,
अंतर्मन अंतर्मुखी द्वंद्व में उलझा,
विचारों की अस्थिरता
अस्पष्ट दोलित दृश्यात्मकता
कल्पनाओं की सूखती धाराओं
गंधहीन,मरुआते
कल्पतरुओं की टहनियों से झरे
बिखरे पत्रों को कुचलकर
यथार्थ के पाँव तले,
आदिम मानव बस्तियों में प्रवेश
जीवन के नग्न सत्य से
साक्षात्कार,
 दहकते अंगारों पर
 रखते ही पाँव
 भभक उठती है चेतना,
 चिरैंधा गंध से भरी साँसे
 तिलिस्म टूटते ही
 व्याकुलता से छटपटाने लगती है,
भावहीन, संवेदनहीन
निर्दयी,बर्बर प्रस्तर प्रहार
शब्दाघात के आघात
असहनीय वेदना से
तड़पकर मर जाती है 
प्रकृति की कविताएँ,
भावों की स्निग्धता 
बलुआही होने का एहसास,
निस्तेज सूर्य की रश्मियाँ
अस्ताचल में पसरी
नीरवता में चिर-शांति टोहता, 
जीवन की सुंदरता से मोह-भंग 
होते ही मर जाता है 
एक कवि।

#श्वेता

Thursday 5 December 2019

सौंदर्य-बोध

दृष्टिभर
प्रकृति का सम्मोहन
निःशब्द नाद
मौन रागिनियों का
आरोहण-अवरोहण
कोमल स्फुरण,स्निग्धता
रंग,स्पंदन,उत्तेजना,
मोहक प्रतिबिंब,
महसूस करता सृष्टि को 
प्रकृति में विचरता हृदय
कितना सुकून भरा होता है
पर क्या सचमुच,
प्रकृति का सौंदर्य-बोध
जीवन में स्थायी शांति
प्रदान करता है?
प्रश्न के उत्तर में
उतरती हूँ पथरीली राह पर
 कल्पनाओं के रेशमी 
 पंख उतारकर
ऊँची अटारियों के 
मूक आकर्षण के 
परतों के रहस्यमयी,
कृत्रिमताओं के भ्रम में
क्षणिक सौंंदर्य-बोध
के मिथक तोड़
खुले नभ के ओसारे में
टूटी झोपड़ी में
छिद्रयुक्त वस्त्र पहने
मुट्ठीभर भात को तरसते
नन्हें मासूम,
ओस में ओदायी वृक्ष के नीचे
सूखी लकडियाँ तलाशती स्त्रियाँ
बारिश के बाद
नदी के मुहाने पर बसी बस्तियों
की अकुलाहट
धूप से कुम्हलायी
मजदूर पुरुष-स्त्रियाँ
कूड़ों के ढेर में मुस्कान खोजते
नाबालिग बच्चे
ठिठुराती सर्द रात में
बुझे अलाव के पास
सिकुड़े कुनमुनाते 
भोर की प्रतीक्षा में
कंपकंपाते निर्धन,
अनगिनत असंख्य
पीड़ाओं,व्यथाओं 
विपरीत परिस्थितियों से
संघर्षरत पल-पल...
विसंगतियों से भरा जीवन
असमानता,असंतोष
क्षोभ और विस्तृष्णा
अव्यक्त उदासी के जाल में
भूख, 
यथार्थ की कंटीली धरा पर
रोटी की खुशबू तलाशता है
ढिबरी की रोशनी में
खनकती रेज़गारी में
चाँद-तारे पा जाता है
कुछ निवालों की तृप्ति में
सुख की पैबंदी चादर
और सुकून की नींद लेकर
जीवन का सौंदर्य-बोध 
पा जाता है
जीवन हो या प्रकृति
सौंदर्य-बोध का स्थायित्व
मन की संवेदनशीलता नहीं
परिस्थितिजन्य
 भूख की तृप्ति
 पर निर्भर है।

#श्वेता

साहित्य कुंज फरवरी द्वितीय अंक में प्रकाशित।

http://m.sahityakunj.net/entries/view/saundrya-bodh



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