Tuesday, 2 June 2020

दस्तक...


नन्हें जुगनुओं को
स्याह दुपट्टे के
किनारों में गूँथती रात
शाम से ही
करती पहरेदारी
नभ के माथे पर
लगाकर
दमकते चाँद का 
रजत टीका।

चिड़ियों की 
अबूझ अंतराक्षरी 
सुनकर भोर लेती 
अंगडाई, 
शीतल झकोरे की
छुअन से सिहरी
पत्तियों पर
नर्तन करती 
धूप की शोख़ बालियाँ 
 ठुमककर रिझाती 
 बाग-बगीचे को ।

नदियों,झरनों की
उन्मुक्त खिलखिलाहट से
आह्लादित
दिन कुलांचे भरकर
पुकारता है घटाओं को
धरती के आँचल में
ऋतुओं का
धनक रंग धरने को।

कठोर गगनचुंबी गर्वीले
निर्जन धूसर पहाड़ के
सीने पर टँके
गहरे हरे घने वृक्षों से
उलझी लताओं में
छुआ-छुई खेलती
गिलहरियाँ 
पकते धूप की
जलती पीड़ा कुतरती है।

कोमल पातों से 
लटकी बूँदों को पीकर
जोते गये खेतों की
उर्वर माटी को
बींधती जीवनदायिनी
 किरणें
 नियमित,निरंतर
अपने प्रगाढ आलिंगन से
धरती के गर्भ में पलते
भविष्य के भ्रूणों में
नवप्राण भरती है।

और...
उपभोगवादी,अवसरवादी 
अतृप्त लालसाओं से युक्त
सुविधाभोगी मनुष्य 
दूषित कर प्रकृति 
छीजता  संसाधन
बिगाड़ता संतुलन।

सुनो मनुष्य!
समरसता की आस में
थक चुकी रोष से भरी 
प्रकृति के प्रतिकार का
क्षणांश नाद ही
महाविनाश  की
मौन पदचाप,
दस्तक है।

#श्वेता सिन्हा
२ जून२०२०

18 comments:

  1. मनुष्य ने सुधरना नहीं है। आईना दिखाता सृजन।

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  2. सुन्दर..भी..
    चेतावनी ..भी
    सुनो मनुष्य!
    समरसता की आस में
    थक चुकी रोष से भरी
    प्रकृति के प्रतिकार का
    क्षणांश नाद ही
    महाविनाश के
    मौन पदचाप की
    दस्तक है।

    ReplyDelete
  3. सुनो मनुष्य!
    समरसता की आस में
    थक चुकी रोष से भरी
    प्रकृति के प्रतिकार का
    क्षणांश नाद ही
    महाविनाश के
    मौन पदचाप की
    दस्तक है। बहुत सुंदर और सार्थक रचना श्वेता जी।

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-06-2020) को   "ज़िन्दगी के पॉज बटन को प्ले में बदल दिया"  (चर्चा अंक-3721)    पर भी होगी। 
    --
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 

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  5. छुआ-छुई खेलती
    गिलहरियाँ
    पकते धूप की
    जलती पीड़ा कुतरती है...अत्यंत मनमोहक प्राकृतिक बिंबों से होकर यथार्थ के कठोर धरातल पर ला पटकती है रचना... सजग होने का समय है।

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  6. लाजवाब श्वेता आपकी व्यंजनाएं इतनी अद्भुत अभिनव हैं कि मन उलझता चला जाता है आपके लेखन में,ज्यादा कुछ नहीं लिखती बस!! सुंदर सृजन, अभिराम, अनुपम !!

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  7. सौंदर्य बौध करवाती
    सुंदर रचना 👌👌👌

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  8. सुनो मनुष्य!
    समरसता की आस में
    थक चुकी रोष से भरी
    प्रकृति के प्रतिकार का
    क्षणांश नाद ही
    महाविनाश की
    मौन पदचाप,
    दस्तक है।
    सत्य को आइना दिखाती रचना 👌👌👌👌

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  9. उफ्फ! प्रकृति की सुंदर झलक दिखाते हुए यूँ अचानक जब आपने आईना दिखाया तो उस भयानक सत्य की छवि ने बड़ा कष्ट दिया। यही तो है लेखनी की क्षमता जो पल भर में हमे हमारी वास्तविकता दिखा दे। बहुत खूब लिखा आपने आदरणीया दीदी जी सुंदर,सटीक,अद्भुत। आपको और आपके इस अनूठे सृजन को मेरा सादर प्रणाम 🙏

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  10. सुनो मनुष्य!
    समरसता की आस में
    थक चुकी रोष से भरी
    प्रकृति के प्रतिकार का
    क्षणांश नाद ही
    महाविनाश की
    मौन पदचाप,
    दस्तक है।
    मनुष्य को चेताती पंक्तियां👌👌👌
    बहुत खूबसूरत सृजन
    श्वेता तुम्हारे अलंकारिक शब्द प्रकृति की अलग ही छटा प्रस्तुत करते हैं। बहुत खूब..👌👌

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  11. प्राकृति और मानव के बीच ऐसे द्वन्द निरंतर हो रहे हैं ...
    रचना प्राकृति के विभिन्न पहलुओं को छूते हुए आगे बढती है ... बहुत लाजवाब अभिव्यक्ति ...

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  12. दस्तक से चेत जाने वाला मानव नहीं.. यह युग पूर्ण विनाश होने के बाद शायद... आज पटना में गैंग रेप हुआ

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  13. नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 04 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    आपकी रचना की पंक्ति-

    "महाविनाश की मौन पदचाप"

    हमारी प्रस्तुति का शीर्षक होगी।

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  14. सुन्दर रचना

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  15. सुनो मनुष्य!
    समरसता की आस में
    थक चुकी रोष से भरी
    प्रकृति के प्रतिकार का
    क्षणांश नाद ही
    महाविनाश की
    मौन पदचाप,
    दस्तक है।
    प्रकृति तो नवप्राण भरने वाली हर दुख हरने वाली ही रही है सदा परन्तु हमने ही स्वार्थवश इसका संतुलन बिगाड़ा ...अब रुष्ट प्रकृति का महाविनाश हमे हघ झेलना है।
    बहुत ही सुन्दर सार्थक लाजवाब सृजन।

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  16. This comment has been removed by the author.

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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