नन्हें जुगनुओं को
स्याह दुपट्टे के
किनारों में गूँथती रात
शाम से ही
करती पहरेदारी
नभ के माथे पर
लगाकर
दमकते चाँद का
रजत टीका।
चिड़ियों की
अबूझ अंतराक्षरी
सुनकर भोर लेती
अंगडाई,
शीतल झकोरे की
छुअन से सिहरी
पत्तियों पर
नर्तन करती
धूप की शोख़ बालियाँ
ठुमककर रिझाती
बाग-बगीचे को ।
नदियों,झरनों की
उन्मुक्त खिलखिलाहट से
आह्लादित
दिन कुलांचे भरकर
पुकारता है घटाओं को
धरती के आँचल में
ऋतुओं का
धनक रंग धरने को।
कठोर गगनचुंबी गर्वीले
निर्जन धूसर पहाड़ के
सीने पर टँके
गहरे हरे घने वृक्षों से
उलझी लताओं में
छुआ-छुई खेलती
गिलहरियाँ
पकते धूप की
जलती पीड़ा कुतरती है।
कोमल पातों से
लटकी बूँदों को पीकर
जोते गये खेतों की
उर्वर माटी को
बींधती जीवनदायिनी
किरणें
नियमित,निरंतर
अपने प्रगाढ आलिंगन से
धरती के गर्भ में पलते
भविष्य के भ्रूणों में
नवप्राण भरती है।
और...
उपभोगवादी,अवसरवादी
अतृप्त लालसाओं से युक्त
सुविधाभोगी मनुष्य
दूषित कर प्रकृति
छीजता संसाधन
बिगाड़ता संतुलन।
सुनो मनुष्य!
समरसता की आस में
थक चुकी रोष से भरी
प्रकृति के प्रतिकार का
क्षणांश नाद ही
महाविनाश की
मौन पदचाप,
दस्तक है।
#श्वेता सिन्हा
२ जून२०२०