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Sunday, 17 May 2020

ध्वंसावशेष


उनके तलुओं में
देश के गौरवशाली
मानचित्र की
गहरी दरारें 
उभर आयी हैं।

छाले,पीव,मवाद,
पके घावों,स्वेद-रक्त की 
धार से गीली
चारकोल के
बेजान राजमार्गों से
उठती,
आह और बेबसी की भाप
मृत इंसानियत की
हड्डियाँ गला रही है।

ओ धर्म के ठेकेदारों!
कहां हो?
मज़हब के नाम पर
रह-रहकर उबलने वालों
खून तुम्हारा पानी हो गया?
अब क्यों नहीं लड़ते
मानवता के नाम पर
इन अनाम भीड़ से
अपने धर्म--जाति के
निरीह बेबस
चेहरों को क्यों नहीं चुनते ? 

राहत के आँकड़ों
की अबूझ पहेलियाँ 
सियासी दानवीरों की
चमत्कृत घोषणाएँ
ट्रेनों-बसों की लंबी कतारें
तू-तू,मैं-मैं,
ख़ोखली बयानबाज़ी
जन प्रतिनिधियों के
संजीवनी मंत्र का जाप
ठठरियों के 
दिव्य कवच से
टकराकर चूर हो रहे है!!

देश का
गर्वित लोकतंत्र,
शहरी वैभव के
कूड़ेदान,नाबदान
और पीकदान को
साफ़ करने वालों के
चिथड़ों का बोझ
वहन करने में असमर्थ 
क्यों है?
जिनके स्वेद से
गूँथे आटे से
निवाले सोने के हो जाते हैं 
उनकी थाली में
विपन्नता का हास और
आँसुओं का भोग क्यों है?

क्या लिखूँ,कैसे लिखूँ,
कितना लिखूँ 
असहनीय व्यथाओं,
अव्यक्त वेदना का गान
सुनो ओ!
दहकते सूरज,
झुलसाती हवाओं
मेरे लाचार,बेबस
घर वापस लौटते
भाई-बंधुओं से कहो 
न भ्रमित होना 
चकाचौंध से
न लौटकर तुम आना
तुम्हारे गाँव की मिट्टी 
सहज स्वीकार करेगी
तुम्हारे अस्तित्व का
 ध्वंसावशेष।

©श्वेता सिन्हा

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मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...