क्यूँ लगता अंजाना है।
उग आये हैं कंक्रीट वन
भरा शहर वीराना है।
बहे लहू जिस्मों पे ख़ंजर
न दिखलाओ ऐसा मंज़र,
चौराहे पर खड़े शिकारी
लेकर हाथ में दाना है।
चेहरों पर चेहरे हैं बाँधें
लोमड़ और गीदड़ हैं सारे,
नहीं सलामत एक भी शीशा
पत्थर से याराना है।
मरी हया और सूखा पानी
लूट नोच करते मनमानी,
गूँगी लाशें जली ज़मीर का
हिसाब यहीं दे जाना है।
वक़्त सिकंदर सबका बैठा
जो चाहे जितना भी ऐंठा,
पिघल पिघल कर जिस्मों को
माटी ही हो जाना है।
-श्वेता सिन्हा
अद्भुत !!!!
ReplyDeleteअत्यंत आभारी हूँ आपके आशीष के लिए।
Deleteसादर।
अप्रतिम
ReplyDeleteसादर
आभार दी बहुत सारा
Deleteसादर।
"वक़्त सिकंदर सबका बैठा
ReplyDeleteजो चाहे जितना भी ऐंठा,
पिघल पिघल कर जिस्मों को
माटी ही हो जाना है।"
हर एक शब्द कलयुग का भयावह चित्र खींच रहा है
बेहद उत्क्रष्ट रचना लाजवाब 👌
अति आभार आपका आँचल,आपकी उत्साह भरी प्रतिक्रिया से एक ऊर्जा का संचरण होता है सदैव।
Deleteसादर।
वाह!!श्वेता ....एक एक शब्द सच्चाई से भरा ....
ReplyDeleteबहुत आगे बढोगी इस क्षेत्र में ,यही शुभकामनाएं है ..😊
वाव्व...श्वेता, एक एक शब्द वर्तमान की कड़वी सच्चाई उजागर करता!बहुत सुंदर।
ReplyDeleteवाह शानदार श्वेता सत्य दर्शन करवाती रचना,अप्रतिम
ReplyDeleteस्वार्थ और लालच मे वशिभूत इंसान जीवन का सत्य भूल जाता है।
किस का गुमान
कौन सा अभिमान
माटी मे मिल जानी माटी की ये शान।
सब काल चक्र का फेरा है
नादान।
तूं धरा का तुक्ष कण है
आया अकेला जाना क्षण मे
समझ ले ये सार मन मे, कर संज्ञान ।
बहुत सुंदर भाव... समसामयिक.
ReplyDeleteवक़्त सिकंदर सबका बैठा
ReplyDeleteजो चाहे जितना भी ऐंठा,
पिघल पिघल कर जिस्मों को
माटी ही हो जाना है।
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति श्वेता जी ।
वर्तमान परिपेक्ष्य का एकदम सत्य अंकित किया है श्वेता जी अद्भुत रचना शुभकमनाएँ आपको
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteबहुत ख़ूब ...
ReplyDeleteये जिस्म तो वक दिन पिघल ही जाना है ... दिर वैसे भी जहाँ चेहरे पे चहरे लगे हों तो विरानियाँ तो रहनी ही हैं ...
ग़ज़ब का भाव लिए ...
वाह !वाह !क्या बात है श्वेता जी । आज के सच के साथ दर्शन का मेल अद्भुत है ।शुभकामनाएँ
ReplyDeleteसादर ।
बढ़िया
ReplyDeleteपिघल पिघल कर जिस्मों को
ReplyDeleteमाटी ही हो जाना है।... वाह श्वेता जी जीवन की सच्चाई बयां करती बहुत सुंदर कविता
बहुत उम्दा
ReplyDeleteमरी हया और सूखा पानी
ReplyDeleteलूट नोच करते मनमानी,
गूँगी लाशें जली ज़मीर का
हिसाब यहीं दे जाना है।
बहुत सुन्दर.....
लाजवाब
वाह!!!
बहुत ही सुंदर रचना।।
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