Saturday 9 June 2018

भरा शहर वीराना है


पहचाने चेहरे हैं सारे
क्यूँ लगता अंजाना है।
उग आये हैं कंक्रीट वन
भरा शहर वीराना है।

बहे लहू जिस्मों पे ख़ंजर
न दिखलाओ ऐसा मंज़र,
चौराहे पर खड़े शिकारी
लेकर हाथ में दाना है।

चेहरों पर चेहरे हैं बाँधें
लोमड़ और गीदड़ हैं सारे,
नहीं सलामत एक भी शीशा
पत्थर से  याराना है।

मरी हया और सूखा पानी
लूट नोच करते मनमानी,
गूँगी लाशें जली ज़मीर का
हिसाब यहीं दे जाना है।

वक़्त सिकंदर सबका बैठा
जो चाहे जितना भी ऐंठा,
पिघल पिघल कर जिस्मों को
माटी ही हो जाना है।

-श्वेता सिन्हा

21 comments:

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    1. अत्यंत आभारी हूँ आपके आशीष के लिए।
      सादर।

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  2. अप्रतिम
    सादर

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    1. आभार दी बहुत सारा
      सादर।

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  3. "वक़्त सिकंदर सबका बैठा
    जो चाहे जितना भी ऐंठा,
    पिघल पिघल कर जिस्मों को
    माटी ही हो जाना है।"

    हर एक शब्द कलयुग का भयावह चित्र खींच रहा है
    बेहद उत्क्रष्ट रचना लाजवाब 👌

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    1. अति आभार आपका आँचल,आपकी उत्साह भरी प्रतिक्रिया से एक ऊर्जा का संचरण होता है सदैव।

      सादर।

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  4. वाह!!श्वेता ....एक एक शब्द सच्चाई से भरा ....
    बहुत आगे बढोगी इस क्षेत्र में ,यही शुभकामनाएं है ..😊

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  5. वाव्व...श्वेता, एक एक शब्द वर्तमान की कड़वी सच्चाई उजागर करता!बहुत सुंदर।

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  6. वाह शानदार श्वेता सत्य दर्शन करवाती रचना,अप्रतिम
    स्वार्थ और लालच मे वशिभूत इंसान जीवन का सत्य भूल जाता है।
    किस का गुमान
    कौन सा अभिमान
    माटी मे मिल जानी माटी की ये शान।
    सब काल चक्र का फेरा है
    नादान।
    तूं धरा का तुक्ष कण है
    आया अकेला जाना क्षण मे
    समझ ले ये सार मन मे, कर संज्ञान ।

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  7. बहुत सुंदर भाव... समसामयिक.

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  8. वक़्त सिकंदर सबका बैठा
    जो चाहे जितना भी ऐंठा,
    पिघल पिघल कर जिस्मों को
    माटी ही हो जाना है।
    बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति श्वेता जी ।

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  9. वर्तमान परिपेक्ष्य का एकदम सत्य अंकित किया है श्वेता जी अद्भुत रचना शुभकमनाएँ आपको

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  10. बहुत ख़ूब ...
    ये जिस्म तो वक दिन पिघल ही जाना है ... दिर वैसे भी जहाँ चेहरे पे चहरे लगे हों तो विरानियाँ तो रहनी ही हैं ...
    ग़ज़ब का भाव लिए ...

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  11. वाह जी वाह, क्या ख़ूब पिरोया जज्बातों को आपने...
    पहचाने चेहरे हैं सारे
    क्यूँ लगता अंजाना है।
    उग आये हैं कंक्रीट वन
    भरा शहर वीराना है।...
    बेहद उम्दा👌👌👌👏👏👏

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  12. वाह !वाह !क्या बात है श्वेता जी । आज के सच के साथ दर्शन का मेल अद्भुत है ।शुभकामनाएँ
    सादर ।

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  13. पिघल पिघल कर जिस्मों को
    माटी ही हो जाना है।... वाह श्वेता जी जीवन की सच्चाई बयां करती बहुत सुंदर कविता

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  14. मरी हया और सूखा पानी
    लूट नोच करते मनमानी,
    गूँगी लाशें जली ज़मीर का
    हिसाब यहीं दे जाना है।
    बहुत सुन्दर.....
    लाजवाब
    वाह!!!

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  15. बहुत ही सुंदर रचना।।

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आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

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