जीवन-यात्रा में
बूँद भर तृप्ति की चाह लिये
रेगिस्तान-सी मरीचिका
में भटकता है मन,
छटपटाहटाता
व्याकुल
गर्म रेत के अंगारें को
अमृत बूँद समझकर
अधरों पर रखता है
प्यासे कंठ की तृषा मिटाने को
झुलसता है,
तन की वेदना में,
मौन दुपहरी की तपती
पगलाई गर्म रेत की अंधड़
से घबराया मन छौना
छिप जाना चाहता है
बबूल की परछाई की ओट में
घनी छाँह का
भ्रम लिये,
बारिश की आस में
क्षितिज के शुष्क किनारों को
रह-रहकर
ताकती मासूम आँखें
नभ पर छाये
मंडराते बादलों को देखकर
आहृलादित होती है,
स्वप्न बुनता है मन
भुरभुरी रेत से
इंद्रधनुषी घरौंदें बनाने का,
बारिश की बूँदें
देह से लिपटकर,
देह को भींगाकर,
देह को सींचकर
देह के भावों को
जीवित करती है
देह की कोंपल पर लगे
पुष्प की सुगंध के
आकर्षण में
भ्रमित हुआ मन
भूल जाता है
सम्मोहन में
पलभर को सर्वस्व ,
देह की अभेद्य
दीवार के भीतर
पानी की तलाश में
सूखी रेत पर रगड़ाता
अनछुआ मन
मरीचिका के भ्रम में उलझ
तड़पता रहता है
परविहीन पाखी-सा
आजीवन।
-श्वेता सिन्हा
बहुत ही शानदार।भावपूर्ण प्रवाहपूर्ण रचना।एक ही बार में प्रारम्भ से अंत तक पड़ता चला गया।बांध से लिये इन शब्दों ने।अच्छा लेखन।बधाई आभार आपको।
ReplyDeleteविरोधाभासी संकल्पनाओं से गुज़रती मन की यात्रा अभीष्ट प्राप्त होने तक ज़ारी रहती है.
ReplyDeleteसुन्दर रचना.
बधाई.
बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना 👌👌
ReplyDeleteविदग्ध, असि धार सा मृग की अबोल तृषा सा दुर्निवार मन की गति का बहुत सांगोपांग वर्णन अप्रतिम अद्भुत।
ReplyDeleteतृषित मन यूं झुला जाय जैसे
रेगिस्तान में आग की फाग।
वाह!!!
झुला को झुलसा पढें।
Deleteबहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना आदरणीया श्वेता जी बधाई
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबबूल की परछाई की ओट में
ReplyDeleteघनी छाँह का
भ्रम लिये,
स्वप्न बुनता है मन
भुरभुरी रेत से
इंद्रधनुषी घरौंदें बनाने का,
केवल आप और आप ही ऐसा विस्मयकारी काम कर सकते हैं। मैं निःशब्द हो गया। इस तरह का सृजन करने वाला, आपके समकक्ष दिखने वाला, आज तक कोई अन्य रचनाकार देखने मे नहीं आया। पूरी की पूरी रचना बेहतरीन। बेमिसाल। wahhh
अतिउत्तम.. भावपूर्ण रचना।
ReplyDeleteवाह सखी लाजवाब लिखा
ReplyDeleteछोटा से मन को कैसे समझायें
जितना सोचें उलझते ही जायें
बहुत बहुत बधाई इस शानदार रचना के लिये
देह की कोंपल पर लगे
ReplyDeleteपुष्प की सुगंध के
आकर्षण में
भ्रमित हुआ मन
भूल जाता है
सम्मोहन में
पलभर को सर्वस्व
वा...व्व....श्वेता, बहुत ही शानदार रचना।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 26 अगस्त 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteपानी की तलाश में
ReplyDeleteसूखी रेत पर रगड़ाता
अनछुआ मन
मरीचिका के भ्रम में उलझ
तड़पता रहता है
परविहीन पाखी-सा
आजीवन।... बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना श्वेता जी , बधाई
बहुत सुंदर श्वेता जी ! जागी आँखों के ख़्वाब टूटते तो बहुत हैं पर उन्हें देखना कैसे छोड़ दें?
ReplyDeleteहर नई ठोकर नया, इक हौसला बन जाएगी,
और नाक़ामी मुझे मंज़िल तलक पहुंचाएगी,
है अगर सेहरा, मेरी किस्मत, न कोई है गिला,
ये घटा बरसे कहीं भी, प्यास ख़ुद बुझ जाएगी.
oh..i m spellbound...bahut sunder rachna
ReplyDeleteDo visit my blog https://successayurveda.blogspot.com/
मृगमरीचिका में फँसकर तड़पते रहने से बचना है तो एक ही उपाय है। भावनाओं को खेल समझो। खेलो, मजे करो और अंत में 'आत्मार्थे पृथ्वी तज्येत्' कहकर छुटकारा पा लो.....
ReplyDeleteभ्रमित हुआ मन
भूल जाता है
सम्मोहन में
पलभर को सर्वस्व ,
देह की अभेद्य
दीवार के भीतर
पानी की तलाश में
सूखी रेत पर रगड़ाता
अनछुआ मन
मरीचिका के भ्रम में उलझ
तड़पता रहता है
परविहीन पाखी-सा
आजीवन।
दर्द का खूबसूरती से चित्रण। सुंदर शब्दाभिव्यक्ति !!!
मन की अधूरेपन का बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दांकन प्रिय श्वेता | आपके चिर परिचित अंदाज से वेदना भी विशेष हो जाती है | सस्नेह --
ReplyDeletebehtareen rachna sweta ji...
ReplyDeleteprashantkipoetry.blogspot.com