भूख के नाम पर,
हर दिन तमाशा देखिये।
पेट की लकीरों का
चीथड़ी तकदीरों का,
दानवीरों की तहरीरों में
शब्दों का शनाशा देखिये।
उनके दर्द औ' अश्क़ पर
दरियादिली के मुश्क पर,
चमकते कैमरों के सामने
बातों का बताशा देखिये।
सपनों भरा पतीला लेकर
घोषणाओं का ख़लीता देकर,
ख़बरों में ख़बर होने की
होड़ बेतहाशा देखिये।
बिकते तैल चित्र अनमोल
उधड़े बदन,हड्डियों को तोल,
जीवित राष्ट्रीय प्रदर्शनी में
चिरपरिचित निराशा देखिये।
मेंढकों की आज़माइश है
दयालुता बनी नुमाइश है,
सिसकियों के इश्तिहार से,
बन रहे हैं पाशा देखिये।
भूख के नाम पर,
हर दिन तमाशा देखिये।
©श्वेता सिन्हा
१८अप्रैल२०२०
१८अप्रैल२०२०
शब्दार्थ:
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शनाशा- जान-परिचय
मुश्क - बाँह,भुजा
ख़लीता- थैला
पाशा - तुर्किस्तान में बड़े बड़े अधिकारियों और सरदारों को दी जानेवाली उपाधि।
देख रहे हैं। सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteभूख के नाम पर,
ReplyDeleteहर दिन तमाशा देखिये।
बिल्कुल सत्य और सटीक 👌
बातों का बताशा... बधाई!
ReplyDeleteनिःशब्द हूँ
ReplyDeleteबहुत खूब... शब्दों का बेजोड़ संयोजन 👌👌👌
ReplyDeleteवाह!श्वेता ,भूख के नाम पर हर दिन तमाशा ,वाह !!बहुत खूब!
ReplyDeleteवाह अप्रतीम रचना श्वेता! सच्चाई से परिपूर्ण।
ReplyDeleteमार्मिक और सार्थक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteउनके दर्द औ' अश्क़ पर
ReplyDeleteदरियादिली के मुश्क पर,
चमकते कैमरों के सामने
बातों का बताशा देखिये।
बहुत खूब प्रिय श्वेता। समाज सेवा के कथित ठेकेदारों को आइना दिखाती बहुत सार्थक रचना , जो बडी सहजता से पाखण्डी मानवतावादियो से संवाद कर उन्हें उनकी हकीकत से रुबरु कराती है। सुंदर , सर्व रचना के लिए शुभकामनायें और बधाई👌👌👌💐💐💐💐
कितना कुछ भी घटित हो जाय लेकिन दिखावा फिर भी भारी है, ये भी एक तरह की बहुत बड़ी महामारी है
ReplyDeleteबहुत सही लिखा है आपने
गहरी ...
ReplyDeleteयहाँ तो हर बात पर रोज़ तमाशा हो जाता है ...
दिखावा करना एक आदत है जिसका स्वाद इंसान नहीं छोड़ पाता ...
खोखली हमदर्दी पर तीखा व्यंग्य करती प्रासंगिक रचना। मौजूदा माहौल में स्वार्थ और बेशर्मी समाज को मूल्यविहीन जीवन की ओर अग्रसर कर रही है जहाँ भौतिकता एवं पदार्थवाद का बोलबाला है।
ReplyDeleteयथार्थपरक सटीक चिंतन को उभारती अभिव्यक्ति जो पीड़ित पक्ष के लिए मरहम जैसी है।