Monday 20 April 2020

भीड़


रौद्र मुख ,भींची मुट्ठियाँ,
अंगार नेत्र,तनी भृकुटि
ललकार,जयकार,उद्धोष
उग्र भीड़ का
अमंगलकारी रोष।

खेमों में बँटे लोग 
जिन्हें पता नहीं
लक्ष्य का छोर
अंधाधुंध,अंधानुकरण,अंधों को
क्या फ़र्क पड़ता है
लक्ष्य है कौन?

अंधी भीड़
रौंदती है सभ्यताओं को
पाँवों के रक्तरंजित धब्बे
लिख रहे हैं
चीत्कारों को अनसुना कर
क्रूरता का इतिहास।

आत्माविहीन भीड़ के
वीभत्स,बदबूदार सड़े हुये
देह को
धिक्कार रही है
मानवता। 

©श्वेता सिन्हा
२०अप्रैल२०२०
------

7 comments:

  1. अंधी भीड़
    रौंदती है सभ्यताओं को
    पाँवों के रक्तरंजित धब्बे
    लिख रहे हैं
    चीत्कारों को अनसुना कर
    क्रूरता का इतिहास
    सही कहा ये क्रूरता कल इतिहास बनेगी इस अन्धेपन में मानवता को रौंंदने वाले तुम्हारा कल तुम्हें धिक्कारने वाला हैं।
    आत्माविहीन लोगों की असामाजिक हरकतों से खिन्न कवि मन का रोष व्यक्त करती लाजवाब प्रस्तुति
    वाह!!!

    ReplyDelete
  2. सही चित्रण ... लेकिन जिम्मेदारी कौन लेगा...

    ReplyDelete
  3. आत्माविहीन भीड़ के
    वीभत्स,बदबूदार सड़े हुये
    देह को
    धिक्कार रही है
    मानवता।

    भीड़ का यही मनोविज्ञान हैं ,बिना सोचे समझे उमड़ जाना ,अब इसमें मानवता का हनन हो रहा हैं या संस्कृति का फर्क नहीं ,
    सुंदर सृजन श्वेता जी ,सादर नमन

    ReplyDelete
  4. बेहद सशक्त अभिव्यक्ति ...

    ReplyDelete
  5. सुन्दर अभिव्यक्ति।

    ReplyDelete
  6. मानव में मानवीय गुणों को बचाए रखना आज एक गंभीर चुनौती है अतः कविता इस कार्य को आगे बढ़ा रही है तो यह श्रेष्ठ उपक्रम है। समकालीन परिस्थितियों का विचारोत्तेजक चित्रण।

    ReplyDelete
  7. वाह!श्वेता ,बहुत खूब!

    ReplyDelete

आपकी लिखी प्रतिक्रियाएँ मेरी लेखनी की ऊर्जा है।
शुक्रिया।

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...