रौद्र मुख ,भींची मुट्ठियाँ,
अंगार नेत्र,तनी भृकुटि
ललकार,जयकार,उद्धोष
उग्र भीड़ का
अमंगलकारी रोष।
खेमों में बँटे लोग
जिन्हें पता नहीं
लक्ष्य का छोर
अंधाधुंध,अंधानुकरण,अंधों को
क्या फ़र्क पड़ता है
लक्ष्य है कौन?
अंधी भीड़
रौंदती है सभ्यताओं को
पाँवों के रक्तरंजित धब्बे
लिख रहे हैं
चीत्कारों को अनसुना कर
क्रूरता का इतिहास।
आत्माविहीन भीड़ के
वीभत्स,बदबूदार सड़े हुये
देह को
धिक्कार रही है
मानवता।
©श्वेता सिन्हा
२०अप्रैल२०२०
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२०अप्रैल२०२०
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अंधी भीड़
ReplyDeleteरौंदती है सभ्यताओं को
पाँवों के रक्तरंजित धब्बे
लिख रहे हैं
चीत्कारों को अनसुना कर
क्रूरता का इतिहास
सही कहा ये क्रूरता कल इतिहास बनेगी इस अन्धेपन में मानवता को रौंंदने वाले तुम्हारा कल तुम्हें धिक्कारने वाला हैं।
आत्माविहीन लोगों की असामाजिक हरकतों से खिन्न कवि मन का रोष व्यक्त करती लाजवाब प्रस्तुति
वाह!!!
सही चित्रण ... लेकिन जिम्मेदारी कौन लेगा...
ReplyDeleteआत्माविहीन भीड़ के
ReplyDeleteवीभत्स,बदबूदार सड़े हुये
देह को
धिक्कार रही है
मानवता।
भीड़ का यही मनोविज्ञान हैं ,बिना सोचे समझे उमड़ जाना ,अब इसमें मानवता का हनन हो रहा हैं या संस्कृति का फर्क नहीं ,
सुंदर सृजन श्वेता जी ,सादर नमन
बेहद सशक्त अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteमानव में मानवीय गुणों को बचाए रखना आज एक गंभीर चुनौती है अतः कविता इस कार्य को आगे बढ़ा रही है तो यह श्रेष्ठ उपक्रम है। समकालीन परिस्थितियों का विचारोत्तेजक चित्रण।
ReplyDeleteवाह!श्वेता ,बहुत खूब!
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