Wednesday, 26 March 2025

बे-मुरव्वत है ज़िंदगी


 बे-आवाज़ ला-इलाज उम्रभर मर्ज़ देती है।
बे-मुरव्वत है ज़िंदगी बे-इंतहा दर्द देती है।


जम जाते हैं अश्क आँख के मुहाने पर;

मोहब्बत की बे-रुख़ी मौसम सर्द देती है।


 ख़्वाब इश्क़ के जब भी देखना चाहो

 दिल को धप्पा, दुनिया कम-ज़र्फ़ देती है।


सीले मन के आहातों में अंधेरा कर;

बे-वफ़ाई मोहब्बत का रंग ज़र्द देती है।


ढूँढ़ते फिर रहे ज़माने भर में मरहम;

ये आशिक़ी है, बस झूठा हमदर्द देती है।


-श्वेता

२६ मार्च२०२५

 

Wednesday, 12 March 2025

बचाना अपने भीतर


सरक रहे हैं

तनों की सुडौल देह से

पातों के उत्तरीय,

टहनियों की नाजुक 

कलाइयों से 

टूटकर बिखर रही हैं 

खनकती हरी चुड़ियाँ।


निर्वस्त्र हुए वृक्षों पर

पक्षियों के रहस्य और

हैं धमनियों के जाल;


टूटे,झरे,निराशा के ठूँठ पर

नन्हीं,कोमल,आशाओं से भरी

पत्ती मुस्कुराती है;

नारंगी भोर कुलाचें भरकर

टहक सांझ में बदल जाती है।


सुनो...

जीवन है पतझड़ और बसंत 

कभी लगे अंत तो कभी अनंत

ऋतुओं के दंश से घबराकर

जड़ न होकर

जड़ बन जाना

हर मौसम से बे-असर रह जाना

पतझड़ में धैर्य रखकर;

वसंत और बरखा को बचाना अपने भीतर

इस संसार को सुंदर,जीवंत और 

नम बनाए रखने के लिए...। 

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-श्वेता
१२ मार्च २०२५

Monday, 3 March 2025

बे-हया का फूल


 हर बरस
फागुन के मौसम में
ढाक के गंधहीन फूलों को 
बदन पर मल-मलकर 
महुआ की गंध से मतायी
मेरी श्वासों की सारंगी 
समझने का प्रयास करती है
जीवन का अर्थ...।

मेरे जन्म पर
न सप्तऋषियों ने कोई बैठक की 
न ग्रहों की चाल ने कोई
विशेष योग बनाया ...
न सूरज मुस्कुराया
न चाँद खिलखिलाया 
न सितारों ने भेजा जादुई संदेश
न मछलियाँ देखकर शरमाई
न नदियों ने किलककर तान सुनाई
न कलियों के अधर चूमकर
तितलियों ने प्यार किया
न ही पंखुडियों को छेड़कर
भँवरों ने आँखों को चार किया ...
न किसी कवि ने  प्रेमगीत लिखा
न किसी शाइर ने मनमीत लिखा
संसार के अपरिचित,सामान्य तट पर
किसी भी परिस्थिति में जीवट-सी
चुल्लूभर पानी में डूबकर 
पुष्पित-पल्लवित होती रही
बे-हया का फूल बनकर
सदा से उदासीन और उपेक्षित 
प्रकृति का अंश होकर भी 
प्रकृति में समाने को व्याकुल,
छटपटाती रही उम्रभर...।
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-श्वेता
३ मार्च २०२५

Wednesday, 1 January 2025

आकांक्षा


नन्हीं-नन्हीं आकांक्षाओं की

गठरी सहेजे, 

आने वाली तिथियों के 

किवाड़ की झिर्रियों के पार

उत्सुकता से झाँकने का प्रयास,

नयी तिथियों की पाँव की रूनझुन 

उछाह और उमंग से भरकर

ताज़ा लाल गुलाब की 

नशीली खुशबू-सी 

मन के परों के अवगुठंन खोल देती है।


उड़ते मन की एक आकांक्षा 

नदियों, पहाड़ों,आकाश,बादल,

आकाशगंगा,नक्षत्रों, ग्रहों,

जंगलों,फूलों, तितलियों

कछुओं और मछलियों समेत

समूची प्रकृति की मौन की भाषा

समझ न पाने से विकल

ओस की बूँदों को छू-छूकर 

विलाप करने लगती है।


मन की कुछ आकांक्षाएँ

अपनी नाज़ुक हथेलियों से

काल के नीरनिधि पर

संसार का सबसे ख़ूबसूरत सेतु

बनाना चाहती है;

मानवता से मनुष्यता की,

जिसकी छाया में छल-प्रपंच,

द्वेष-ईष्या, घृणा-क्रोध,लोभ-मोह,

सृष्टि की समस्त कलुषिता भस्म हो जाए

किंतु;

हवा के पन्नों पर लिए लिखी इबारत 

आँधियों में तिनका-तिनका 

बिखर जाती है।


समय की कैंची

कुशलता से निःशब्द

निरंतर काट रही है

पलों की महीन लच्छियों को

जीवन के दिवस,मास,

बरस पे बरस स्मृतियों में बदल रहे हैं

और अब... 

अधूरी,अनगढ़ थकी

आकांक्षाओं का बोझ 

उतारकर 

आने वाले पलों से बे-ख़बर

मैं एक तितली के स्वप्न में 

पुष्प बनकर अडोल पड़ी रहना चाहती हूँ।

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-श्वेता

१ जनवरी २०२५

Thursday, 29 August 2024

इख़्तियार में कुछ बचा नहीं




नज़्म
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चेहरे पे कितने भी चेहरे लगाइए,
दुनिया जो जानती वो हमसे छुपाइए।

माना; अब आपके दिल में नहीं हैं हम,
शिद्दत से अजनबीयत का रिस्ता निभाइए।

हम ख़ुद ही मुँह फेर लेंगे आहट पे आपकी,
आँखें चुराने की आप न ज़हमत उठाइए ।

जी-हज़ूरी ख़्वाहिशों की करते नहीं अब हम,
जा ही रहे हैं, साथ सारे एहसान ले जाइए।

दर्द है भी या नहीं कोई एहसास न रहा,
बना दिया है बुत, सज्दे में सर तो झुकाइए।

दुआओं के सिवा,इख़्तियार में कुछ बचा नहीं, 
अब शौक से हिज्र की रस्में निभाइए।

#श्वेता

Thursday, 1 August 2024

प्रेम-पत्र



 सालों बाद मन पर आज फिर
बारिशों की टिपटिपाहट 
दस्तक देने लगी
उदासियों के संदूक खोलकर
तुम्हारे अनलिखे प्रेम-पत्र पढ़ते हुए
भावों के आवरण में क़ैद होना
बहुत अच्छा लग रहा...।

मन के आँचल की छोर से बँधी
मधुमास की गाँठ-सी
तपती दुपहरी में
विरहणी की हूक-सी उठती
तुम्हारी स्मृतियाँ,
मौन की उष्णता से 
आँखों से पिघलता खारापन, 
छटपटाहट और बेबसी
तुम्हारे व्यवहार से उत्पन्न
अनुत्तरित प्रश्नों के प्रेम-पत्र
अब सँभाले नहीं जाते .. ।

क्षितिज में डूबते सूरज से
इंद्रधनुष के रंग चुनने का प्रयास
हास्यास्पद है न...?
रात के नुकीले
ठंडेपन से घबराकर
ढूँढने लगती हूँ
ख़ुशबू तुम्हारे एहसास में लिपटे,
चाँदनी की चुनरी ओढ़े 
स्वप्निल कामनाओं से बोझिल
आँखें,तरसती हैं नींद को
भोर के शोर की बाट जोहती 
तारों के झुरमुट में जुगनू-सी
जलती-बुझती हूँ तुम्हारे अनलिखे
प्रेम-पत्र पढ़ते हुए...।

जीवन के सरगम में
मिठास घोल दूँ,तुम्हें सुकून मिले
ऐसा कोई स्वर नहीं मैं,
शायद,तुम्हारे होठों की मुस्कान भी नहीं
हमने साथ मिलकर देखे नहीं कोई स्वप्न
तुमने नहीं जताया कभी कुछ भी
नदी के किनारों की तरह हैं हम
हाँ ,मैं नहीं हूँ प्रेयसी तुम्हारी
पर फिर भी, हमारे मौन अंतरालों में
अस्पष्ट उपस्थिति तुम्हारी,
तुम्हारे द्वारा अप्रेषित
 प्रेम-पत्रों की साक्षी है...।

जाने रंग बदल रहे हैं कितने
नयी बारिश ,नये मौसम 
उम्र के खाते में बढ़ते 
निर्विकार,भावहीन, रसहीन पल
कब तक सँभाल पाएँगे
अनलिखे प्रेम-पत्रों के पुलिंदे को,
क्या करूँ...?
हवाओं में घोल दूँ,
पहाडों के गर्भ में दबा दूँ;
नदियों में बहा दूँ;
धूप में सुखा दूँ;
या हरसिंगार की जड़ में रोप दूँ...?
सोचती हूँ...
अनछुई,सद्य प्रकृति को सौंप दूँ, 
बंधनमुक्त होकर ही तो अनुभूतियाँ
हो जायेंगी प्रार्थनाएँ,
चिरकाल तक 
अनहद नाद फूटकर जिससे
पवित्र करती रहेंगीं
धरा और अंतरिक्ष के मध्य फैले
प्रेम के जादुई संसार को...।
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-श्वेता

१अगस्त२०२४

Monday, 10 June 2024

कवि के सपने


कवि की आँखों की चौहद्दी

सुंदर उपमाओं और रूपकों से सजी रहती है

बेलमुंडे जंगलों के रुदन में

कोयल की कूक,

तन-मन झुलसाकर ख़ाक करती गर्मियों में

बादलों की अठखेलियाँ गिनते हैं

फूल-काँटों संग झूमते हैं

भँवरे-तितलियों संग ताल मिलाते हैं

गेहूँ-धान की बालियों से

हरे-भरे लहलहाते खेत

गाते किसान,

हँसते बच्चे,

खिलखिलाती स्त्रियाँ,

सभी की ख़ुशियों की 

दुआ माँगते संत और पीर

प्रार्थनाओं और मन्नतों के

धागों में पिरोये भाईचारे,


कवि की कूची

इंद्रधनुषी रंगों से

प्रकृति और प्रेम की

सकारात्मक ,सुंदर ,ऊर्जावान शब्दों की

सुगढ़ कलाकारी करती है

ख़ुरदरी कल्पनाओं में

रंग भरकर 

सभ्यताओं की दीवार पर

नक़्क़ाशी करती है...

जिन कवियों को

नहीं होती राजनीति की समझ

उनके सपनों में

रोज़ आती हैं जादुई परियाँ

जो जीवन की विद्रूपताओं को छूकर

सुख और आनन्द में

बदलने दिलासा देती रहती हैं...।

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# श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...