कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।
अर्थहीन शब्द मात्र,भावों के छोर नहीं हैं।
उम्मीद के धागों से भविष्य की चादर बुन लेते हैं
विविध रंगों से भ्रमित कोई चटक चित्र चुन लेते हैं
समय की दीर्घा में बैठे गुज़रती नदी की धार गिनते
बेआवाज़ तड़पती मीनों को नियति की मार लिखते
भेड़ों में हालात बदलने की होड़ नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।
चौहद्दी में बंद संवेदना,छद्म चीख़ का राज हुआ
शेर डटे हैं सरहद पर ,जंगल का राज़ा बाज़ हुआ
कबतक प्रश्न टोकरी ढोये ,उत्तर ढूँढें बोझिल आँखें
कबतक बंधक दर्द को रखे,उड़ पायेंगी चोटिल पाँखें?
मौन की कोठरी,मात्र एक खोल नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।
हर बहस उन्मादित,चैतन्यता का दहन हुआ
स्वार्थी उद्दीपनों में नैतिकता का क्षरण हुआ
पूर्णता के मिथकीय दृश्य, मधुर स्वप्न टूटते रहे
दिशाहीन मरूभूमि में भटककर साथ छूटते रहे
बौद्धिक परिपक्वता में तृप्ति के बौर नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं है।
@श्वेता सिन्हा
२२ फरवरी २०२१
ReplyDeleteमौन की कोठरी,मात्र एक खोल नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।,,,,,,,,,बहुत सुंदर एवं भावपूर्ण रचना ।
प्रिय श्वेता,सम सामयिक बौद्धिक सृजन। वाचालता के दौर में सही आवाज़ सुनाई दे भी तो कैसे?? नैतिकता के गिरते स्तर और सत्ता लोलुपता में लिप्त स्वार्थी तत्वों से स्तब्ध भावों से भरी लेखनी थम ना जाए तो क्या करे! उद्विग्नता में डूबे मन की इस सहज अभिव्यक्ति पर बधाई और शुभकामनाएं। सस्नेह ❤🌹
ReplyDeleteआप से निवेदन है,कि हमारी कविता भी एक बार देख लीजिए और अपनी राय व्यक्त करने का कष्ट कीजिए आप की अति महान कृपया होगी
Deleteचौहद्दी में बंद संवेदना,छद्म चीख़ का राज हुआ
ReplyDeleteशेर डटे हैं सरहद पर ,जंगल का राज़ा बाज़ हुआ👌👌👌👌👌
बौद्धिक परिपक्वता में तृप्ति के बौर नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं है।👌👌👌👌👌
समसामयिक विषयों को रूपांतरित करती यथार्थ पूर्ण रचना..
ReplyDeleteआप से निवेदन है,कि हमारी कविता भी एक बार देख लीजिए और अपनी राय व्यक्त करने का कष्ट कीजिए आप की अति महान कृपया होगी
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (24-02-2021) को "नयन बहुत मतवाले हैं" (चर्चा अंक-3987) पर भी होगी।
ReplyDelete--
मित्रों! कुछ वर्षों से ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके। चर्चा मंच का उद्देश्य उन ब्लॉगों को भी महत्व देना है जो टिप्पणियों के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि उनका प्रसारण कहीं हो भी नहीं रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत बारह वर्षों से अपने धर्म को निभा रहा है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आप से निवेदन है,कि हमारी कविता भी एक बार देख लीजिए और अपनी राय व्यक्त करने का कष्ट कीजिए आप की अति महान कृपया होगी
Deleteआपके द्वारा वर्णित तथ्य मान्य हैं स्वाति जी लेकिन बौद्धिक परिपक्वता से युक्त लोगों के लिखने-कहने का दौर तो यही है । ऐसे लोगों की आवाज़ चाहे नक्कारखाने में तूती के बोल-सी ही है पर उसका मोल सामान्य समय की तुलना में आज कहीं अधिक है । इसलिए - बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे ।
ReplyDeleteसंवेदना ही चौहद्दी में बंद हो जब, तो यही परिणाम होता है.
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 23 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआप से निवेदन है,कि हमारी कविता भी एक बार देख लीजिए और अपनी राय व्यक्त करने का कष्ट कीजिए आप की अति महान कृपया होगी
Deleteबौद्धिक परिपक्वता में तृप्ति के बौर नहीं है।
ReplyDeleteकुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं है।----यथार्थ
अति सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर मुग्ध करती कविता - - साधुवाद सह।
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteआज के समय को कहती सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteवर्तमान हालातों के प्रति सजग करती प्रभावशाली रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteआदरणीया मैम ,
ReplyDeleteएक सामयिक और अत्यंत सशक्त रचना। सदा की तरह अंतर-आत्मा को झकझोरती हुई। सच स्वार्थ और अहंकार के भाव एवं सत्ता की लौलुपता ने कुछ लिकने या कहने का दौर खत्म कर दिया है।
हार्दिक आभार इस सुंदर रचना के लिए व आपको प्रणाम।
हर बहस उन्मादित,चैतन्यता का दहन हुआ
ReplyDeleteस्वार्थी उद्दीपनों में नैतिकता का क्षरण हुआ
बिल्कुल समसामयिक हालातों का सटीक चित्रण करती रचना। शब्दों का चुनाव और बुनाव दोनों कमाल हैं !
Very very well said कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं, Your compositions explains every thing. great .. waah waah
ReplyDeleteसमसामयिक हालातों का सटीक चित्रण करती रचना।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDelete......छद्म चीख़ का राज हुआ .......
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।
ReplyDeleteअर्थहीन शब्द मात्र,भावों के छोर नहीं हैं।
समाज में व्याप्त संवेदनहीनता में भावों का छोर कहाँ...
अब तो दादुर बोलि हैं हमें पूछि हैं कौन...
मौन में ही बुद्धिमत्ता है...
लाजवाब सृजन।