कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।
अर्थहीन शब्द मात्र,भावों के छोर नहीं हैं।
उम्मीद के धागों से भविष्य की चादर बुन लेते हैं
विविध रंगों से भ्रमित कोई चटक चित्र चुन लेते हैं
समय की दीर्घा में बैठे गुज़रती नदी की धार गिनते
बेआवाज़ तड़पती मीनों को नियति की मार लिखते
भेड़ों में हालात बदलने की होड़ नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।
चौहद्दी में बंद संवेदना,छद्म चीख़ का राज हुआ
शेर डटे हैं सरहद पर ,जंगल का राज़ा बाज़ हुआ
कबतक प्रश्न टोकरी ढोये ,उत्तर ढूँढें बोझिल आँखें
कबतक बंधक दर्द को रखे,उड़ पायेंगी चोटिल पाँखें?
मौन की कोठरी,मात्र एक खोल नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं हैं।
हर बहस उन्मादित,चैतन्यता का दहन हुआ
स्वार्थी उद्दीपनों में नैतिकता का क्षरण हुआ
पूर्णता के मिथकीय दृश्य, मधुर स्वप्न टूटते रहे
दिशाहीन मरूभूमि में भटककर साथ छूटते रहे
बौद्धिक परिपक्वता में तृप्ति के बौर नहीं है।
कुछ भी लिखने कहने का दौर नहीं है।
@श्वेता सिन्हा
२२ फरवरी २०२१